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Shri Ashtapad Maha Tirth
से भगवान् की भक्तिपूर्वक पूजा की और मानो कस्तूरी की बेल बना रहे हों इस तरह धूप भी जलाया। बाद में भगवान् के आगे से जरा पीछे हटकर मणिमय पीठ के ऊपर शुद्ध अक्षत (चावल) से अष्टमंगल की रचना की तथा ढेर के ढ़ेर फल भी चढ़ाए। इसके बाद दीपक के प्रकाश से सब जगह से मानों अन्धकार के समूह को दूर कर रहे हों इस तरह भरत चक्रवर्ती ने मंगल दीए के साथ ही साथ आरती भी उतारी। बाद भक्ति के कारण ऊपर की ओर उठे हुए रोमांच की कान्ति से बीधे हुए, हर्ष के आँसू रूपी मोती और वाणीरूपी सूत से हार गूँथते हों इस तरह स्तुति करने लगे
“हे स्वामिन् ! हे जगदाधार ! जिस पृथ्वी पर आपने धर्म का उद्धार किया है उस पृथ्वी को छोड़कर तथा स्वर्ग एवं नरक की छोर को भी पार करके अत्यन्त कठिनाई से प्राप्त होनेवाले लोक के अग्रभाग (मोक्ष) में तुम चले गए हो । यद्यपि तुम इस त्रिलोक का त्याग करके जल्दी ही चले गए हो फिर भी वह तो अपने चित्त में तुम्हारा ध्यान बलपूर्वक करता ही रहेगा। तुम्हारे ध्यानरूपी रस्सी का अवलम्बन लेकर मेरे जैसे दूर रहने पर भी तुम्हारे पास ही में हैं जब ऐसा है तब तुम पहले क्यों चले गए। अशरण हमें यहाँ पर छोड़कर जैसे तुम सहसा चले गए हो वैसे, जब तक हम तुम्हारे पास में न आ जाएँ तब तक, हमारे मन में से मत चले जाना।"
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इस प्रकार श्री आदिनाथ भगवान् की स्तुति करने के बाद भरत चक्रवर्ती ने दूसरे भी अरिहन्त भगवानों को भक्तिपूर्वक नमस्कार करके उनकी अभिनव उक्ति से युक्त स्तुति की।
‘इस रत्नमय प्रासाद की कालके जैसे क्रूर प्राणी और मनुष्यों द्वारा आशातना न हो' - ऐसा विचार करके भरत ने पर्वत के शिखर तोड़ डाले और दण्ड-रत्न द्वारा एक एक योजन की दूरी पर आठ पैड़ियाँ कराई जिससे वह अष्टापद के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस तरह सब कार्य वहाँ सम्पूर्ण करके अत्यन्त दुःखी भरत राजा मन को वहीं रखकर बाकी के देह के साथ पर्वत पर से नीचे उतरे । शोकयुक्त मनुष्यों के द्वारा बहाए गए आँसुओं से पृथ्वी को धूल रहित करते हुए वह निष्पाप राजा क्रमशः प्रयाण करते हुए विनीता नगरी में आए। वहाँ आने के बाद उनका मन गीत में, कविता के उदात्त रस में, सुन्दर स्त्रियों में अथवा क्रीड़ा-सरोवरों में नहीं लगता था। नन्दनवन जैसे उद्यानों में, सुख देनेवाले चन्दन में, सुन्दर हार में अथवा भोजन किंवा जल में उन्हें आनन्द नहीं आता था। आसन में, शयन में, वाहन में, धन में, तथा दूसरे सभी कार्यों में एक मात्र भगवान् का ही ध्यान करनेवाले अपने स्वामी से सब मंत्री कहने लगे कि 'देवताओं ने जिसे मेरू पर्वत पर नहलाया, जिससे इक्ष्वाक कुल निकला, जिसने राजाओं का आचार (राजनीति) दिखलाया, जिससे भली प्रजा सन्तुष्ट है, जिससे धर्म का प्रादुर्भाव हुआ है, जिसका उज्ज्वल चारित्र है और जिसमें ज्ञान ने स्थिति की है - अर्थात् जिसे केवलज्ञान हुआ है - ऐसे भगवान् के बारे में शोक करना योग्य नहीं है। उस परमेश्वर की तो स्तुति करनी चाहिए, उसकी सदा भक्तिपूर्वक पूजा करो, उससे आप सनाथ हों, उसी में अपने चित्त को लगाओ, उससे प्राप्त किए हुए बोधका चिन्तन करो, उसके गुणों का अवलम्बन लो और जो परमपद में लीन हो गए हैं उनके बारे में मन में मोह न रखो ।'
मंत्रियों द्वारा कहे गए ऐसे वचन सुनकर चक्रवर्ती ने किसी तरह अपना दारुण शोक छोड़ दिया और राजकार्य में लग गए। आहिस्ते-आहिस्ते भगवान् के शोक से मुक्त वह लहरी राजा सुख-विलास की भावना से प्रेरित होकर ऊँचे महल में विश्वस्त लोगों के साथ रमण करने लगे ।
एक दिन स्नान करने से सुन्दर लगनेवाले तथा सब अंगों के ऊपर आभूषण पहने हुए भरत राजा ने दर्पणागार (शीश महल) में प्रवेश किया। वहाँ पर उन्होंने अपनी ऊँचाई जितने बड़े तथा सान पर चढ़ाने से पानीदार लगनेवाले रत्न के दर्पण में लीलापूर्वक अंगडाई लेकर अपना रूप देखा । प्रत्येक अंग को देखकर प्रसन्न होनेवाले भरत, अँगूठी बिना की और इसीलिये पाला पड़ने से वृक्ष की जली हुई शाखा जैसी मालूम होनेवाली अपनी अंगुली देखकर विचार करने लगे कि 'अंगूठी से जिस तरह मेरी अंगुली में यह कृत्रिम शोभा मालूम
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Bharat Chakravarti