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Shri Ashtapad Maha Tirth
५०. यज्ञमित्र
५१. यज्ञदत्त
५२. स्वयंभुव
५३. भागदत्त
५४. भागफल्गु
५५. गुप्त
५६. गुप्त फल्गु
५७. मित्र फल्गु
५८. प्रजापति
५९. सत्य यश
६०. वरुण
६१.
धनवाहिक
६२. महेन्द्रदत्त
६३. तेजोराशि
६४. महारथ
६५. विजयश्रुति ६६. महाबल
६७. सुविशाल
६८. वज्र
६९. वैर
७०. चन्द्रचूड
७१. मेघेश्वर
७२. कच्छ
७३. महाकच्छ
७४. सुकच्छ
७५. अतिबल
भद्रावलि
७६.
७७. नमि
७८. विनमि
७९. भद्रबल
नन्दी
८०.
८१. महानुभाव
८२. नन्दीमित्र
८३.
कामदेव
८४.
अनुपम
जबकि सुषम- दुःषम नामक तीसरे आरक के समाप्त होने में ८९ पक्ष (तीन वर्ष, आठ मास और पन्द्रह दिन) शेष रहे थे, उस समय प्रभु ऋषभदेव निर्वाण को प्राप्त हुए प्रभु के साथ जिन १०,००० साधुओं ने पादपोपगमन संधारा किया था वे भी प्रभु के साथ सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए।
* निर्वाण महोत्सव :
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भगवान् ऋषभदेव का निर्वाण होते ही सौधर्मेन्द्र शक्र आदि ६४ इन्द्रों के आसन चलायमान हुए । वे सब इन्द्र अपने-अपने विशाल देव परिवार और अद्भुत दिव्य ऋषि के साथ अष्टापद पर्वत के शिखर पर आये । देवराज शक्र की आज्ञा से देवों ने तीन चिताओं और तीन शिविकाओं का निर्माण किया । शक्र ने क्षीरोदक से प्रभु के पार्थिव शरीर को और दूसरे देवों ने गणधरों तथा प्रभु के शेष अन्तेवासियों के शरीरों को क्षीरोदक से स्नान करवाया। उन पर गोशीर्ष चन्दन का विलेपन किया गया। शक्र ने प्रभु के और देवों ने गणधरों तथा साधुओं के पार्थिव शरीरों को क्रमशः तीन अतीव सुन्दर शिविकाओं में रखा। “जय जय नन्दा, जय जय भद्दा " आदि जयघोषों और दिव्य देव वाद्यों की तुमुल ध्वनि के साथ इन्द्रों ने प्रभु की शिबिका को और देवों ने गणधरों तथा साधुओं की दोनों पृथक् पृथक् शिविकाओं को उठाया। तीनों चिताओं के पास आकर एक चिता पर शक्र ने प्रभु के पार्थिव शरीर को रखा। देवों ने गणधरों के पार्थिव शरीर उनके अन्तिम संस्कार के लिए निर्मित दूसरी चिता पर और साधुओं के शरीर तीसरी चिता पर रखे । शक्र की आज्ञा से अग्निकुमारों ने क्रमशः तीनों चिताओं में अग्नि की विकुर्वणा की और वायुकुमार देवों ने अग्नि को प्रज्वलित किया। उस समय अग्निकुमारों और वायुकुमारों के नेत्र अश्रुओं से पूर्ण और मन शोक से बोझिल बने हुए थे । गोशीर्षचन्दन की काष्ठ से चुनी हुई उन चिताओं में देवों द्वारा कालागरू आदि अनेक प्रकार के सुगन्धित द्रव्य डाले गये। प्रभु के और उनके अन्तेवासियों के पार्थिव शरीरों का अग्नि-संस्कार हो जाने पर शक्र की आज्ञा से मेघकुमार देवों ने क्षीरोदक से उन तीनों चिताओं को ठण्डा किया। सभी देवेन्द्रों ने अपनी-अपनी मर्यादा के अनुसार प्रभु की डाढ़ों और दाँतों को तथा शेष देवों ने प्रभु की अस्थियों को ग्रहण किया ।
तदुपरान्त देवराज शक्र ने भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों को सम्बोधित करते हुए कह- "हे देवानुप्रियो शीघ्रता से सर्वरत्नमय विशाल आलयों (स्थान) वाले तीन चैत्य स्तुप का निर्माण करो। उनमें से एक तो तीर्थकुर प्रभु ऋषभदेव की चिता पर दूसरा गणधरों की चिता पर और तीसरा उन विमुक्त अणगारों की चिता के स्थान पर हो।" उन चार प्रकार के देवों ने क्रमशः प्रभु की चिता पर, गणधरों की चिता पर और अणगारों की चिता पर तीन चैत्यस्तूपों का निर्माण किया । आवश्यक निर्युक्ति में उन देवनिर्मित और आवश्यक मलय में भरत निर्मित चैत्यस्तूपों के सम्बन्ध में जो उल्लेख है, वह इस प्रकार है
Jain Dharma ka Maulik Itihas