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॥ जैन धर्म का मौलिक इतिहास ॥
आचार्य हस्तीमलजी
जैन शास्त्रों के अनुसार इस अवसर्पिणीकाल में २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवती, ९ वासुदेव, ९ प्रतिवासुदेव और ९ बलदेव- ये ६३ उत्तम पुरुष हुए हैं। इनको शास्त्रीय परिभाषा में त्रिषष्ठि शलाका पुरुष कहा जाता है। इनका विस्तृत चित्रण प्राचीन जैन-जैनेंतर ग्रन्थों के आधार से इस ग्रन्थ में सुन्दर रूप से प्रस्तुतिकरण किया गया है।
यहाँ इस ग्रन्थ में समाविष्ट भगवान ऋषभदेव और अष्टापद विषयक कुछ तथ्यों का निदर्शन किया गया है। * देशना और तीर्थ स्थापना :
केवलज्ञानी और वीतरागी बन जाने के पश्चात् ऋषभदेव पूर्ण कृतकृत्य हो चुके थे। वे चाहते तो एकान्त साधना से भी अपनी मुक्ति कर लेते, फिर भी उन्होंने देशना दी। इसके कई कारण बताये गये हैं। प्रथम तो यह कि जब तक देशना दे कर धर्मतीर्थ की स्थापना नहीं की जाती, तब तक तीर्थंकर नाम कर्म का भोग नहीं होता। दूसरा, जैसा कि प्रश्नव्याकरण सूत्र में कहा गया है, समस्त जगजीवों की रक्षा व दया के लिये भगवान् ने प्रवचन दिया। अतः भगवान् ऋषभदेव को शास्त्र में प्रथम धर्मोपदेशक कहा गया है। वैदिक पुराणों में भी उन्हें दशविध धर्म का प्रवर्तक माना गया है।
जिस दिन भगवान् ऋषभदेव ने प्रथम देशना दी, वह फाल्गुन कृष्णा एकादशी का दिन था। उस दिन भगवान् ने श्रुत एवं चारित्र धर्म का निरूपण करते हुए रात्रिभोजन विरमण सहित अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहरूप पंचमहाव्रत धर्म का उपदेश दिया।
प्रभु ने समझाया कि मानव-जीवन का लक्ष्य भोग नहीं योग है, राग नहीं विराग है, वासना नहीं साधना है, वृत्तियों का हठात् दमन नहीं अपितु ज्ञानपूर्वक शमन है।
१. प्रश्न प्र. संवर। २. ब्रह्माण्ड पुराण... ३. (क) फग्गुणबहुले इक्कारसीई अह अट्टमेणभत्तेण ।
उप्पन्नंमि अणंते महब्बया पंच पन्नवए।।
-आवश्यक नियुक्ति गाथा-३४० (ख) सव्व जगजीव रक्खण दयठ्याए पावयणं भगवया सुकहियं।
-प्रश्न व्याकरण-२।१।
Pg. 119-121
Rushabhdev Vol. I Ch. 2-C, Jain Dharma ka Maulik Itihas
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