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दृष्टि से अर्हत् अरिष्टनेमि, पुरुषादानी पार्श्व और महावीर ये तीन ऐतिहासिक पुरुष हैं, किन्तु ऋषभदेव इतिहास की परिगणना के पूर्व हुए हैं, तथापि पुरात्व आदि सामग्री से ऋषभदेव के सम्बन्ध में पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।
Shri Ashtapad Maha Tirth
मोहनजोदड़ो की खुदाई से सम्प्राप्त मोहरों में एक ओर नग्न ध्यानस्थ योगी की आकृति अति है तो दूसरी ओर वृषभ का चिह्न है, जो भगवान् ऋषभदेव का लांछन माना जाता है, अतः विज्ञों का ऐसा अभिमत है, कि यह ऋषभदेव की ही आकृति होनी चाहिये, और वे उस युग में जन-जन के आराध्य रहे होंगे।
स्वर्गीय डॉ. रामधारीसिंह दिनकर लिखते हैं मोहन जोदड़ो की खुदाई में प्राप्त मोहरों में से एक में योग के प्रमाण मिले हैं । एक मोहर में एक वृषभ तथा दूसरी ओर ध्यानस्थ योगी है और जैन धर्म के आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव थे। उनके साथ भी योग की परम्परा इसी प्रकार लिपटी हुई है। यह परम्परा बाद में शिव के साथ समन्वित हो गई। इस दृष्टि से कई जैन विद्वानों का यह मानना अयुक्ति युक्त नहीं दिखता कि ऋषभदेव वेदोल्लिखित होने पर भी वेद - पूर्व हैं । १२
मथुरा के संग्रहालय में जो शिलालेख उपलब्ध हुए हैं, वे दो सहस्र वर्ष पूर्व राजा कनिष्क और हुविष्क प्रभृति के शासन काल के हैं। डॉ० फूहरर उन शिलालेखों के गंभीर अनुसंधान के पश्चात् इस निष्कर्ष पर पहुँचे, कि प्राचीन युग में ऋषभदेव का अत्यधिक महत्व था, वे जन-जन के मन में बसे हुए थे। उन्हें भक्ति-भावना से विभोर होकर लोग अपनी श्रद्धा अर्पित करते थे ।
सी. विसेन्ट ए. स्मिथ का यह अभिमत है, कि मथुरा से जो सामग्री प्राप्त हुई है, वह लिखित जैन परम्परा के समर्थन में विस्तार से प्रकाश डालती है और साथ ही जैनधर्म की प्राचीनता के सम्बन्ध में अकाट्य प्रमाण भी प्रस्तुत करती है एवं इस बात पर बल देती है, कि प्राचीन समय में भी जैनधर्म इसी रूप में मौजूद था। ई. सन् के प्रारम्भ में भी अपने विशेष चिह्नों के साथ चौबीस तीर्थङ्करों की मान्यता में दृढतम विश्वास था।
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अन्तर्राष्ट्रीय विद्वान डॉ. हर्मन जेकोबी ने तीर्थङ्करों की ऐतिहासिकता पर अनुसंधान करते हुए लिखा, कि पार्श्वनाथ को जैन धर्म का प्रणेता या संस्थापक सिद्ध करने के लिये कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। जैन परम्परा प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव को जैनधर्म का संस्थापक मानने में एकमत है। इस मान्यता में ऐतिहासिक सत्य की सम्भावना है । १४
श्री स्टीवेन्सन ने डॉ. हर्मन जेकोबी के अभिमत का समर्थन करते हुए लिखा है, कि जब जैन और ब्राह्मण दोनों ही ऋषभदेव को इस कल्प काल में जैनधर्म का संस्थापक मानते हैं तो प्रस्तुत मान्यता को अविश्वसनीय नहीं माना जा सकता। १५
श्री वरदाकान्त मुखोपाध्याय एम. एन. ए. ने विभिन्न ग्रन्थ और शिलालेखों के परिशीलन के पश्चात् दृढ़ता के साथ इस बात पर बल दिया है, कि लोगों का यह भ्रमपूर्ण विश्वास है कि पार्श्वनाथ जैन धर्म
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आजकल, मार्च १९६२ पृ. ८ ।
The discoveries have to a very large extent supplied corroboration to the written Jain tradition and they offer tangible incontrovertible proof of the antiquity of the Jain religion and of its early existence very much in its present from. The series of twentyfour pontiffs (ThirthAnkaras), each with his distinctive emblem, was evidently firmly believed in at the beginig of the Christian era.
-The Jain Stup- Mathura, Intro., p. 6 There is nothing to prove that Parshva was the founder of Jainism. Jain tradition is unanimous in making Rishabha something historical in the tradition which makes him the first Tirthanakara.
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-Indian Antiquary, Vol. IX, P. 163 It is so seldom that Jains and Brahmanas argee, that I do not see how we can refues them credit in this instance, Where they do so. -Kalpa Sutra. Intro., P. XVI
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Rushabhdev Ek Parishilan