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________________ . इतर साहित्य में ऋषभदेव * बौद्ध साहित्य में ऋषभदेव * इतिहास और पुरातत्व के आलोक में * पाश्चात्य विद्वानों की खोज * बौद्ध साहित्य में ऋषभदेव : बौद्ध-वाङ्मय में श्रमण भगवान् महावीर के जीवन-प्रसंग और निम्रन्थ धर्म का उल्लेख अनेक स्थलों पर उपलब्ध होता है। यद्यपि जैन-आगम ग्रन्थों में महावीर के समकालीन व्यक्ति के रूप में बुद्ध का संकेत तक भी नहीं मिलता, किन्तु बौद्ध त्रिपिटकों में 'निगंठ नायपुत्त' का निर्देश, तथा एक प्रबल प्रतिद्वन्दी के रूप में उनका विवरण बहुतायत से मिलता है, अतः बुद्ध, भगवान् महावीर के समकालीन होने से उनका उल्लेख बौद्ध साहित्य में हुआ है। जैन साहित्य में तथागत बुद्ध का उल्लेख न होने का कारण यह है कि भगवान् महावीर कुछ पहले हुए हैं और बुद्ध बाद में हुए हैं। महावीर के समय बुद्ध का इतना प्रचार नहीं था पर बुद्ध के समय महावीर का पूर्ण प्रचार हो चुका था। अतः अपने प्रचार के लिये बुद्ध को महावीर का विरोध करना आवश्यक हो गया था। यह सत्य है कि भगवान् ऋषभदेव का वर्णन जैसा वैदिक साहित्य में सविस्तृत मिलता है, उतना बौद्ध साहित्य में नहीं। तथापि यत्र-यत्र भगवान् महावीर तथा भरत के साथ-साथ भगवान् ऋषभदेव का उल्लेख मिलता है। धम्मपद में ऋषभ और महावीर का एक साथ नाम आया है। जैन साहित्य में कुलकरों की परम्परा में नाभि और ऋषभ का जैसा स्थान है वैसा ही स्थान बौद्ध परम्परा में महासमंत्त का है।२ सामयिक परिस्थिति भी दोनों में समान रूप से चित्रित हुई है। संभवतः बौद्ध परम्परा में ऋषभ का ही अपर नाम महासमत्त हो। बौद्धग्रन्थ 'आर्य मञ्जुश्री मूलकल्प' में भारत के आदि-सम्राटों में नाभिपुत्र ऋषभ और ऋषभपुत्र भरत का उल्लेख किया गया है- उन्होंने हिमालय से सिद्धि प्राप्त की। वे व्रतों का परिपालन करने में दृढ़ थे, वे ही निर्ग्रन्थ तीर्थंकर ऋषभदेव जैनों के आप्तदेव थे। इसी ग्रन्थ में एक स्थान पर कपिल के १ उसभं पवरं वीरं महेसिं विजिताविनं । अनेजं नहातकं बुद्धं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।। धम्मपद ४२२ २ दीघनिकाय-(क) अग्गमसुत्त भाग ३ (ख) जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग १, प्रस्तावना, पृ० २२। ३ जैनदृष्टि से सिद्धि-स्थल अष्टापद है, हिमालय नहीं। -लेखक प्रजापतेः सूतो नाभि तस्यापि आगमुच्यति । नाभिनो ऋषभपुत्रों वै सिद्ध कमं दृढ़व्रत ।। तस्यापि मणिचरो यक्षः सिद्धो हैमवते गिरौ। ऋषभस्य भरतः पुत्रः सोडपि मंजतान तदा जपेत ।। निर्ग्रन्थ तीर्थंकर ऋषभ निर्ग्रन्थ रूपि... -आर्य मंजुश्री मूलकल्प श्लो० ३९०-३९२ 25 267 Rushabhdev : Ek Parishilan
SR No.009853
Book TitleAshtapad Maha Tirth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size178 MB
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