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Shri Ashtapad Maha Tirth
इसके प्रथम सर्ग में जिनेश्वर स्तुति के पश्चात् काव्य-निर्माण का कारण बताया गया है। द्वितीय सर्ग से लेकर षष्ठम सर्ग तक ऋषभदेव के द्वादश पूर्व-भवों का उल्लेख है। सप्तम सर्ग में कुलकरोत्पत्ति और प्रभु के जन्मोत्सव का वर्णन है। अष्टम सर्ग में ऋषभदेव की बाल-लीलाओं तथा सुमङ्गला एवं सुनन्दा से पाणिग्रहण का वर्णन है। नवम सर्ग में भरत, ब्राह्मी, बाहुबली एवं सुन्दरी के जन्म का वर्णन किया गया है। दशम सर्ग में ऋषभदेव के राज्याभिषेक, विनीता नगरी की स्थापना और राज्यव्यवस्था का वर्णन है। एकादश सर्ग में भगवान् के षड्ऋतु विलास का विस्तृत वर्णन किया गया है। द्वादश सर्ग में ऋषभदेव की वसन्तोत्सव क्रीडा का वर्णन है तथा लोकान्तिक देवों की प्रार्थना पर उनके विरक्त होने का उल्लेख किया गया है। सम्राट ऋषभ के द्वारा भरत का राज्याभिषेक किया गया और स्वयं ऋषभदेव का सांवत्सरिक दान देकर दीक्षा ग्रहण करने का, एवं दीक्षित होते ही मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न होने का वर्णन है।
इसके पश्चात् त्रयोदश सर्ग में नमि-विनमि की ऋषभदेव में अटूट श्रद्धा-भक्ति देखकर इन्द्र का उन्हें विद्याधरैश्वर्य पद प्रदान करना, श्रेयांस का इक्षुरस द्वारा पारणा कराना तथा ऋषभदेव को केवलज्ञान होना आदि घटनाओं का वर्णन है। चतुर्दश सर्ग में प्रभु का समवसरण, मरुदेवी का आगमन और उसकी निर्वाणोपलब्धि, समवसरण में ऋषभदेव की देशना तथा संघ-स्थापना का विवरण दिया गया है। पञ्चदश सर्ग में भरत की दिग्विजय का वर्णन है। षोडश सर्ग में भरत का चक्रित्वाभिषेक, सुन्दरी का अष्टापद पर ऋषभदेव से दीक्षा ग्रहण करना और भरत एवं बाहुबली के अतिरिक्त भाइयों के दीक्षा ग्रहण का वर्णन किया गया है। सप्तदश सर्ग में भरत-बाहुबली के युद्ध का वर्णन है। भरत का पराजय, बाहुबली की दीक्षा एवं केवलज्ञान का निरूपण किया गया है। अष्टादश सर्ग में मरीचि के अन्तिम तीर्थङ्कर बनने की भविष्यवाणी, ऋषभदेव का अष्टापद पर निर्वाण, भरत के केवलज्ञानोपलब्धि तथा निर्वाण का वर्णन है। एकोनविंश सर्ग में आचार्य ने अपनी गुरु-परम्परा तथा प्रस्तुत काव्य की रचना के प्रेरक पद्ममन्त्री की वंशावली का विवरण दिया है। कथानक की परिसमाप्ति तो अष्टादश सर्ग के साथ हो जाती है।
१६. भक्तामर स्तोत्र
प्रस्तुत स्तोत्र के रचयिता आचार्य मानतुङ्ग हैं। ये वाराणसी के तेजस्वी शासक हर्षदेव के समकालीन थे। इनके पिता का नाम धनदेव और माता का नाम धनश्री था। मानतुङ्ग बाल्यकाल से ही महान् प्रतिभा के धनी थे। अतः दीक्षा लेने पर आचार्य ने इन्हें योग्य समझकर अनेक चमत्कारिक विद्याएँ सिखलायीं।
एक दिन राजा हर्षदेव ने बाण और मयूर ब्राह्मणों की विद्याओं का चमत्कार देखा। बाण के कटे हुए हाथ-पैर जुड़ गये और मयूर का कुष्ठरोग नष्ट हो गया। हर्षदेव अत्याधिक प्रभावित हुए और उन्होंने सभा में उद्घोषण की कि 'आज विश्व में चमत्कारिक विद्याओं का एकमात्र धनी ब्राह्मण समुदाय ही है।'
राजा का मंत्री जैन धर्मानुयायी था। उसने निवेदन किया कि इस वसुन्धरा पर अनेक नररत्न हैं। जैनियों के पास भी चमत्कारिक विद्याओं की कमी नहीं है। यहां पर सम्प्रति आचार्य मानतुङ्ग हैं जो बड़े ही चमत्कारिक हैं। राजा ने शीघ्र ही अपने अनुचरों को भेजकर मानतुंग को बुलवाया। आते ही राजा ने उनको चवालीस लोहे की जंजीरों से बांधकर एक भवन में बन्द कर दिया।
आचार्य मानतुङ्ग चमत्कार प्रदर्शन करना नहीं चाहते थे। जैनधर्म की दृष्टि से चमत्कारिक प्रयोग करना मुनि के लिए निषिद्ध है। वे भगवान् ऋषभदेव की स्तुति में लीन हो गये। भक्तिरस से छलछलाते हुए चवालीस श्लोक बनाये और प्रति श्लोक के साथ ही जंजीरें एक-एक कर टूट पड़ीं। स्तोत्र भक्तामर के नाम से प्रसिद्ध है। बाद में चार श्लोक और बना दिये गये। जिससे वर्तमान में इस स्तोत्र में अड़तालीस श्लोक हैं। स्तोत्र का छन्द वसन्ततिलका है जो संस्कृत साहित्य में बहुत ही मधुर और श्रेष्ठ छन्द माना जाता है। आचार्य मानतुङ्ग के प्रस्तुत प्रयोग से राजा हर्षदेव अत्यधिक प्रभावित और प्रसन्न हुआ और
Rushabhdev : Ek Parishilan
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