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Shri Ashtapad Maha Tirth
सेनाओं को वहीं पास में ठहरा दिया और स्वयं जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करने के लिये प्रस्थान किया ।।१२।।
अहो परममाश्चर्य तिरश्वामपि यद्गणैः । अनुयातं मुनिन्द्राणामज्ञातभयसंपदाम् ।।५५।। सोऽयमष्टापदैर्जुष्टो मृगैरन्वर्थनामभिः। पुनरष्टापदख्यात्तिं पुरैति त्वदुपक्रमम् ॥५६॥ स्फुरन्मणितटोपातिं तारकाचक्रमापतत् । न याति व्यक्तिमस्याद्रेस्तद्रोचिस्छन्नण्डलम् ॥५७।।
अहा, बड़ा आश्चर्य है कि पशुओं के समूह भी, जिन्हें वन के भय और शोभा का कुछ भी पता नहीं है ऐसे मुनियों के पीछे-पीछे फिर रहे हैं ||५५। सार्थक नाम को धारण करने वाले अष्टापद नामके जीवों से सेवित हुआ यह पर्वत आपके चढ़ने के बाद अष्टापद नाम को प्राप्त होगा ।।५६।। जिस पर अनेक मणि देदीप्यमान हो रहे हैं ऐसे इस पर्वत के किनारे के समीप आता हुआ नक्षत्रों का समूह उन मणियों की किरणों से अपना मण्डल तिरोहित हो जाने के प्रकटता को प्राप्त नहीं हो रहा है ।।५७।।
शुद्धस्फटिकसंकाशनिर्मलोदारविग्रहः । शुद्धत्मेव शिवायास्तु तवायमचलाधिपः ।।६४॥ किंचिच्चान्तरमुल्लंघय प्रस्न्नेनान्तरान्मना । प्रत्यासन्नजिनास्थानं विदामास विदांवरः ॥६६॥
हे देव, जिसका उदार शरीर शुद्ध स्फटिक के समान निर्मल है ऐसा यह पर्वतराज कैलाश शुद्धात्मा की तरह आपका कल्याण करनेवाला हो ।।६४।। विद्वानों में श्रेष्ठ भरत चक्रवर्ती प्रसन्न चित्त पूर्वक कुछ ही आगे बढ़े थे कि उन्हें वहाँ समीप ही जिनेन्द्रदेव का समवसरण जान पड़ा ||६६।।
सन् १८०६ में भूटान निवासी लामचीदास गोलालारे नामक व्यक्ति ने चीन, वर्मा, कामरूप एवं अष्टापद कैलाश की तीर्थयात्रा की थी, जिनमें उन्हें १८ वर्ष लगे । उन्होंने अपनी यात्रा का वर्णन मेरी कैलाश नामक पुस्तिका में किया है ।
नोट - ब्र० लामचीदासजी ने विक्रम संवत् १८२८ में दंडकदेश और इकवन में उत्तर ओर जाय वस्त्र त्यागे एक मुनिराय त्रिषणनाम तिन गुरु से दीक्षा ली, लोंचकर नग्नमुद्रा धरि मुनिवत लेख खड़ा योग ध्यानकर मौनसहित प्राण त्यागे।
पत्र का नोट-श्रावक सर्वजनो संशय न करनी, श्रावक जो जाय सो अपनी सम्यक्त सो दर्शन करो, जाने में भ्रम न करना, जरूर दर्शन होंगे शास्त्र में ऐसा कहा है कि अयोध्या से उत्तर की ओर कैलाशगिरि १६०० कोस है, सो सत्य है हम मारगका फेर खाते हुए प्रथम पूर्व ओर, उत्तर ओर, फिर पश्चिम ओर, फिर दक्षिण ओर ९८९४ कोसलों गये आये कैलास तिब्बत चीन के दक्षिण दिशा में हनवर देश में पर ले किनारे पर है। ताकी तलहटी में उत्तर की ओर धीधर बन जानना... सो चिट्ठी लिखित लामचीदास संवत् १८२८ मिती फागुण सुदी ५ रविवार को पूर्ण करो इति ।
लामचीदास जी के लेख में चीन, बर्मा, के जिन मन्दिरों का वर्णन किया है जो जापानी विद्वान् ओकाकुरा के उल्लेख से भी प्रमाणित होता है -- "At one time in a single province of Loyang (China) there were more than three thousand monks and ten thousand Indian families to impress thier national religion and art on Chinese soil," Marcopolo T Portal - Chinese town canton had a temple of five hundred idols with the dragon as their symbol. उन्होंने बर्मा में बाहुबली की मूर्ति का वर्णन किया है जो आज भी वहाँ बाहबही पगोड़ा के रूप में है। जिसके विषय मे इतिहासकार फर्ग्युसन ने लिखा है- "The Baubaugigi Pagoda in Prorn (city in Burma) consist of a solid mass in brick work of cylindrical form about 80 ft high raised on a triple base and surmounted by a finial carrying the Hti or
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- Adinath Rishabhdev and Ashtapad