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तब संसार- दुःख का अन्त करने वाले भगवान् ऋषभदेव सम्पूर्ण एक लाख वर्षों तक पृथ्वी पर विहार करके अनुक्रम से अष्टापद पर्वत पर पहुँचे और छः उपवास के अन्त में दस हजार मुनिगण के साथ सर्वोच्च निर्वाण को प्राप्त हुए। भगवान् ऋषभदेव, उनके गणधरों और अन्तेवासी साधुओं की तीन चिताओं पर पृथकपृथक तीन चैत्यस्तूपों का निर्माण करने के पश्चात् सभी देवेन्द्र अपने देव - देवी परिवार के साथ नन्दीश्वर द्वीप मैं गये। वहाँ उन्होंने भगवान् ऋषभदेव का अष्टाहिक निर्वाण महोत्सव मनाया और अपने-अपने स्थान को लौट गये ।
Shri Ashtapad Maha Tirth
ऋषभदेव के निर्वाण स्थान अष्टापद का विवरण हमें आचारांग नियुक्ति, आवश्यक निर्युक्ति, उत्तराध्ययन सूत्र की निर्युक्ति के अध्ययन १० में, निशीथ चूर्णि, विविध तीर्थ कल्प, आचार्य धर्मघोष सूरि रचित ज्ञानप्रकाश दीप, शीलांक की कृति चउपन्न महापुरिस चरियं (९ वीं शताब्दी), आदि पुराण और उत्तर पुराण, त्रिषष्टिशलाका पुरूष चरियं (हेमचन्द्राचार्य), पंचमहातीर्थ, शत्रुञ्जय महात्म्य (धनेश्वरसूरि कृत) वसुदेव हिण्डी, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, तिलोयपण्णत्ति, पंच महातीर्थ, अष्टापद तप, गौतम रास, गौतम अष्टकम्, रविषेण के पद्म चरित, विमलसूरि के पउमचरिउ, पूज्यपाद के निर्वाण भक्ति, पोटाला पेलेस (दलाईलामा का निवास स्थान) के प्राचीन ग्रन्थों मैं, लामचीवास गोलालारे का विवरण 'मेरी कैलास यात्रा' में सहजानन्दजी के स्तवन आदि में स्पष्ट रूप से प्राप्त होता है।
आचारांग नियुक्ति में लिखा है कि
अट्ठावय मुज्जिते गयग्गपद धम्मचक्के । पासरहा वत्तनगं चमरूप्पायं च वंदामि ॥
तिलोयपण्णति की गाथा ११९८६ में लिखा है ऋषभदेव माघ कृष्णा चतुर्दशी पूर्वाह्न में अपने जन्म नक्षत्र (उत्तराषाढ़ा) के रहते कैलाश पर्वत से १०,००० मुनियों के साथ मोक्ष को प्राप्त हुए । हरिवंश पुराण (जिनसेन) और महापुराण (पुष्पदंत) में वर्णित है कि जब ऋषभदेव की आयु के चौदह दिन शेष रह गये तब वे कैलाश पर्वत पर पहुँचे।
जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सटीक पूर्व भाग १५८।१ पृष्ठ में उल्लेख है कि भरत ने ऋषभदेव भगवान् की चिता भूमि पर अष्टापद पर्वत की चोटी पर स्तूप का निर्माण कराया । "चेइअ थूभे करेह"
अष्टापद गिरि कल्प में ऋषभदेव के अष्टापद पर निर्वाण का विस्तृत रूप से उल्लेख करके अष्टापद की महिमा के विषय में बताया गया है । (see pg. no. 76 )
श्री जिनप्रभ सूरि ने अपनी कृति विविध तीर्थ कल्प ( रचना - सन् १२३२ ई०) में संग्रहीत अपने अष्टापद गिरि कल्प में अष्टापद का ही अपर नाम कैलाश बताया है पर साथ ही पौराणिक साहित्य के आधार से उसकी स्थिति आयोध्या नगरी से उत्तर दिशा में १२ योजन (१५० कि० मी०) की दूरी पर बताई है जिसकी धवल शिखर पंक्तियाँ आज भी आकाश निर्मल होने पर अयोध्या के निकटवर्ती उड्डयकूट से दिखाई पड़ती हैं। इसके निकट ही मानसरोवर है जो परिपार्श्व में संचरण करते जलचर, मत्त मोर आदि पक्षियों के कोलाहल से युक्त है तथा इसकी उपत्यका में साकेतवासी लोग नाना प्रकार की क्रीड़ाएँ करते हैं।
श्री धनेश्वरसूरि कृति शत्रुञ्जय महात्मय में भी अष्टापद का विवरण मिलता है (see pg no. 65 ) इस सारे अष्टापद (कैलास) प्रकरण में सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य जो सामने आया है वह लौह निर्मित यन्त्रम मानव की बात । आज जो यन्त्रमय मानव रोबोट बन रहे हैं उसका वर्णन १२वीं शताब्दी में हेमचन्द्राचार्य ने
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Adinath Rishabhdev and Ashtapad