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Shri Ashtapad Maha Tirth
गोत्र परिचय के फलस्वरूप हजारों हजार वर्षों बाद भी मनुष्य अपने-अपने गोत्र के लोगों को अच्छी तरह पहचान लेते हैं।"
सराक जाति के गोत्रपिता ऋषभदेव थे, इसीलिए निस्सन्देह रूप से कहा जा सकता है कि इनके पूर्व पुरुष भगवान् ऋषभदेव के अत्यन्त ही निकटतम व्यक्ति थे, ऐसा भी हो सकता है कि उनके साथ उन लोगों का खून का रिश्ता भी रहा हो। इसीलिए, ऋषभदेव द्वारा प्रचलित अनुशासन उनके लिए सर्वथा पालन करने योग्य था।
सराक शब्द का साधारण अर्थ होता है श्रावक अर्थात् श्रमणकारी । पाश्चात्य पण्डितों ने ही सर्वप्रथम इस अर्थ को प्रचलित किया । यद्यपि पूरे विश्व में एवं हमारे देश में भी प्रागैतिहासिक युग से ही अधिकांश जातियों के नाम उस जाति के जातिगत पेशे और उसके आदिभूमि के आधार पर रखे गए हैं। इस दृष्टि से भी हम देख सकते हैं कि सराक, सराग, सराकी, सरापी तथा सरोगी आदि शब्द सर + आग या सर + आगी से आए हैं । सर शब्द का अर्थ होता है निःसृत होना एवं आगि अथवा आगी का अर्थ होता है अग्नि। अतएव सराग व सरांगी शब्दों का अर्थ है अग्नि से निःसृत अथवा जो अग्नि से कुछ निःसृत कराते हैं।
"नव पाषाण युग के अन्तिम समय तक मनुष्य यही जानता था कि अग्नि सब कुछ ध्वंस कर देती है। पर अचानक ही आश्चर्य के साथ उन्होंने देखा कि ऋषभ पुत्रगणों ने अग्नि से ध्वंस हा से कुछ महामूल्यवान पदार्थ निःसृत किये। इसीलिए, शायद इन्हें सराग कहा गया हो। सरागी अथवा अग्निपुत्र के रूप में यह जाति श्रेष्ठ सम्मान से विभूषित हुई।” (पूर्वाचल में सराक संस्कृति और जैन धर्म-तित्थयर)
अग्नि प्रयोग के साथ साथ कृषि का ज्ञान भी ऋषभदेव ने दिया था। इस सन्दर्भ में कर्नल टॉड ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ राजस्थान का इतिहास में ऋषभदेव और नूह के साम्य के विषय में उल्लेख करते हुए लिखा है- "Arius montanus" नामक महाविद्वान् ने लिखा है नूह कृषि कर्म से प्रसन्न हुआ और कहते इस विषय में वह सबसे बढ़ गया। इसलिए उसी की भाषा में वह इश-आद-मठ अर्थात् भूमि के काम में लगा रहने वाला पुरुष कहलाया। इश-आद-मठ का अर्थ पृथ्वी का पहला स्वामी होता है। आगे टॉड साहब कहते हैं- "उपर्युक्त पदवी, प्रकृति और निवास स्थान जैनियों के प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ के वृत्तांत के साथ ठीक बैठ सकते हैं जिन्होंने मनुष्यों को खेती बाड़ी का काम और अनाज गाहने के समय बैलों के मुँह को छीकी लगाना सिखाया।"
यह आश्चर्य का विषय है कि ऋषभदेव के विषय में इतने उल्लेख प्राप्त होने के बाद भी कुछ विद्वान् इस सत्यता को स्वीकारने से कतराते हैं इसका कारण या तो उनकी अज्ञानता है या धार्मिक विद्वेष । प्रो. विरुपाक्ष वार्डियर, एम. ए. वेदतीर्थ आदि विद्वानों ने ऋग्वेद में वर्णित ऋषभदेव को आदि तीर्थंकर ऋषभ ही स्वीकार किया है। मोहन-जो-दड़ो और हड़प्पा से प्राप्त सीलों से भी आज से ५००० वर्ष पहले भी ऋषभदेव की मान्यता के पुष्ट प्रमाण मिले हैं।
मोहन-जो-दड़ो से कुछ नग्न कायोत्सर्ग योगी मुद्राएँ मिली हैं, उनका संबन्ध जैन संस्कृति से है। इसे प्रमाणित करते हुए स्व. राय बहादुर प्रो. चन्द्रप्रसाद रमा ने अपने शोधपूर्ण लेख में लिखा है
"सिंधु मुहरों में से कुछ मुहरों पर उत्कीर्ण देवमूर्तियाँ न केवल योग मुद्रा में अवस्थित हैं वरन् उस प्राचीन युग में सिंधु घाटी में प्रचलित योग पर प्रकाश डालती हैं। उन मुहरों में खड़े हुए देवता योग की खड़ी मुद्रा भी प्रकट करते हैं और यह भी कि कायोत्सर्ग मुद्रा आश्चर्यजनक रूप से जैनों से संबन्धित है। यह मुद्रा बैठकर ध्यान करने की न होकर खड़े होकर ध्यान करने की है। आदि पुराण सर्ग अठारह में ऋषभ अथवा वृषभ की तपस्या के सिलसिले में कायोत्सर्ग मुद्रा का वर्णन किया गया है । मथुरा के कर्जन पुरातत्त्व संग्रहालय में एक शिला फलक पर जैन ऋषभ की कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी हुई चार प्रतिमाएँ मिलती हैं, जो ईसा की द्वितीय
-26 161 - - Adinath Rishabhdev and Ashtapad