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Shri Ashtapad Maha Tirth
ज्ञानं वैराग्यमाश्रित्य जितेन्द्रियमहोरगान् ।। २१ ।। सर्वात्मनात्मन्यास्थाप्य परमात्मानमीश्वरम् । नग्नो जटो निराहारोऽचीरी ध्वान्तगतो हि सः ॥ २२ ॥ निराशस्त्यक्तसंदेहः शैवमाप परं पदम्। हिमाद्रेदक्षिणं वर्ष भरताय न्यवेदयत् ॥ २३ ॥ तस्मात्तु भारतं वर्ष तस्य नाम्ना विदुर्बुधाः ।
न ते स्वस्ति युगावस्था क्षेत्रेष्वष्टसु सर्वदा । हिमालयं तु वै वर्ष नाभेरासीन्महात्मनः ।। २७ ।। तस्यर्षभोऽभवत्पुत्रो मरुदेव्यां महाद्युतिः । ऋषभाद्भरतो जज्ञे ज्येष्ठः पुत्रशतस्य सः ॥ २८ ॥
- लिंगपुराण, अध्याय ४७ पृ ६८
नाभेः पुत्रश्च ऋषभः ऋषभाद् भरतोऽभवत् । तस्य नाम्ना त्विदं वर्ष भारतं चेति कीर्त्यते ।। ५७ ।।
- विष्णुपुराण, द्वितीयांश, अध्याय १ पृ. ७७
इन सभी उदाहरणों से ऋषभदेव की ऐतिहासिक प्रामाणिकता में कोई भी संदेह नहीं रह जाता
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है ये सभी प्रमाण स्पष्ट करते हैं कि नाभि और मरुदेवी के पुत्र ऋषभ थे जो योग में तप में, क्षत्रियों में, राजाओं में श्रेष्ठ थे तथा हिमालय के दक्षिण क्षेत्र को उन्होंने अपने पुत्र भरत को सौंप दिया। और भरत के नाम से ही इस क्षेत्र का नाम भारत वर्ष पड़ा।
Adinath Rishabhdev and Ashtapad
- स्कन्धपुराण, माहेश्वरखण्ड, कौमारखण्ड, अध्याय २७
जिस प्रकार जैन परम्परा प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से ही मानव सभ्यता के विकास का प्रारम्भ मानती है, उसी प्रकार अन्य सभी परम्पराओं में भी यही मान्यता कहीं प्रत्यक्ष तो कहीं अप्रत्यक्ष रूप से स्थापित है। अतः यह निर्विवाद है कि मानव सभ्यता और संस्कृति के आदि जनक ऋषभदेव थे। इस विषय में Dr. Stella Gerdner ने लिखा है "The ancient rythm of history have been vibrant enough to focus enough light on jainism. As Risabh or Brisabh as he is generally known has been one of the most remarkable historical person of all times. It was he who changed the forms of society as more scientific one than it was in its primitive stage. (Formation of Identity And Other Essays Pg.313).
ऋग्वेद के गवेषणात्मक अध्ययन के आधार पर प्रसिद्ध विद्वान श्री सागरमलजी ने अर्हत् और ऋषभवाची ऋचायें नामक लेख में लिखा है- "ऋग्वेद में ना केवल सामान्य रूप से श्रमण परम्परा और विशेष रूप से जैन परम्परा से सम्बन्धित अर्हत्, अरहन्त, व्रात्य, वातरसनामुनि, श्रमण आदि शब्दों का उल्लेख मिलता है अपितु उसमें अर्हत् परम्परा के उपास्य वृषभ का भी शताधिक बार उल्लेख मिलता हैं। मुझे ऋग्वेद में वृषभवाची ११२ ऋचाएँ प्राप्त हुई हैं। सम्भवतः कुछ और ऋचाएँ भी मिल सकती हैं। यद्यपि यह कहना कठिन है कि इन सभी ऋचाओं में प्रयुक्त वृषभ शब्द ऋषभदेव का ही वाची है, फिर भी कुछ ऋचाएँ तो अवश्य ऋषभदेव से सम्बन्धित ही मानी जा सकती हैं। डॉ. राधाकृष्णन, प्रो. जिम्मर, प्रो. बार्डियर आदि कुछ जैनेतर विद्वान इस मत के प्रतिपादक हैं कि ऋग्वेद में जैनों के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव से संबंधित निर्देश उपलब्ध होते हैं । बौद्ध साहित्य के धम्मपद में उन्हें (उसभं पवरं वीरं ४२२ ) कहा गया है।"
Prof Nathmal Kedia के अनुसार
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