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Shri Ashtapad Maha Tirth
विविध तीर्थकल्प में आचार्य जिनप्रभ सूरि ने 'अष्टापद कल्प' नामक कल्प की रचना की है। उसमें लिखा है- इन्द्र ने अष्टापद पर रत्नत्रय के प्रतीक तीन स्तूप बनाये।
भरत चक्रवर्ती ने यहाँ पर सिंहनिषद्या बनवायीं, जिनमें सिद्ध प्रतिमाएँ विराजमान करायीं। इनके अतिरिक्त उन्होंने चौबीस तीर्थंकारों और अपने भाईयों की प्रतिमाएँ भी विराजमान करायीं। उन्होंने चौबीस तीर्थंकरों और निन्यानवे भाईयों के स्तूप भी बनवाये थे ।
भगवान् ऋषभदेव के मोक्ष जाने पर उनकी चिता देवों ने पूर्व दिशा में बनायी। भगवान् के साथ जो मुनि मोक्ष गये थे, उनमें जो इक्ष्वाकुवांशी थे, उनकी चिता दक्षिण दिशा में तथा शेष मुनियों की चिता पश्चिम दिशा में बनायी गयीं। बादमें तीनों दिशाओं में चिताओं के स्थान पर देवों ने तीन स्तूपों की रचना की।
अनेक जैन ग्रन्थों में उल्लेख मिलता है कि कैलाश पर भरत चक्रवर्ती तथा अन्य अनेक राजाओं ने रत्न प्रतिमाएँ स्थापित करायी थीं। यथा
कैलाश शिखरे रम्ये यथा भरतचक्रिणा । स्थापिताः प्रतिमा वा जिनायतनपवितपु ।। तथा सूर्यप्रमेणापि...
-हरिषेण कथाकोष, ५६।५ जिस प्रकार मनोहर कैलाश शिखर पर भरत चक्रवर्ती ने जिनालयों की पंक्तियों में नाना वर्णवाली प्रतिमाएँ स्थापित की थीं, उसी प्रकार सूर्यप्रभ नरेश ने मलयगिरि पर स्थापित की ।।
भरत चक्रवर्ती ने चोवीस तीर्थंकरों की जो रत्न-प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित की थीं, उनका अस्तित्व कब तक रहा, यह तो स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता, किन्तु इन मन्दिरों और मूर्तियों का अस्तित्व चक्रवर्ती के पश्चात् सहस्राब्दियों तक रहा, इस प्रकार के स्फुट उल्लेख जैन वाङ्मय में हमें यत्र-तत्र मिलते हैं। द्वितीय चक्रवर्ती सगर के साठ हजार पुत्रों ने जब अपने पिता से कुछ कार्य करने की आज्ञा माँगी तब विचार कर चक्रवर्ती बोले
राज्ञाप्याज़ापिता यूयं कैलासे भरतेशिना । गृहाः कृता महारत्नेश्चततुविशतिरर्हताम् ।। तेषां गङ्गां प्रकुर्वीध्यं परिखां परितां गिरिम् । इति तेऽपि तथाकुर्वन् दण्डरत्नेन सत्त्वरम् ।।
-उत्तरपुराण, ४८।१०७-१०८ अर्थात् राजा सगर ने भी आज्ञा दी कि भरत चक्रवर्ती ने कैलाश पर्वत पर महारत्नों से अरहन्तों के चौबीस मन्दिर बनवाये थे। तुम लोग उस पर्वत के चारों ओर गंगा नदी को उन मन्दिरों की परिखा बना दो। उन राजपुत्रों ने भी पिता की आज्ञानुसार दण्डरत्न से वह काम शीघ्र ही कर दिया।
इस घटना के पश्चात् भरत चक्रवर्ती द्वारा कैलाश पर्वत पर बनाये हुए जिन मन्दिरों का उल्लेख वाली मुनि के प्रसंग में आता है। एक बार लंकापति दशानन नित्यालोक नगर के नरेश नित्यालोक की पुत्री रत्नावली से विवाह करके आकाश मार्ग से जा रहा था। किन्तु कैलाश पर्वत के ऊपर से ऊड़ते समय उसका पुष्पक विमान सहसा रुक गया। दशानन ने विमान रुकने का कारण जानना चाहा तो उसके Bharat ke Digamber Jain Tirth
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