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अध्याय -4
रत्नत्रय के प्रतिबन्धक कारण -
सम्मत्तपडिणिबद्धं मिच्छत्तं जिणवरेहि परिकहिदं। तस्सोदयेण जीवो मिच्छादिट्टि ति णादव्वो॥ (4-17-161) णाणस्स पडिणिबद्धं अण्णाणं जिणवरेहि परिकहिदं। तस्सोदयेण जीवो अण्णाणी होदि णादव्वो॥ (4-18-162) चारित्तपडिणिबद्ध कसायमिदि जिणवरेहि परिकहिदं। तस्सोदयेण जीवो अचरित्तो होदि णादव्वो॥ (4-19-163)
सम्यक्त्व का प्रतिबन्धक (रोकने वाला) मिथ्यात्व है, यह जिनेन्द्रदेव ने कहा है। उसके उदय से जीव मिथ्यादृष्टि होता है, ऐसा जानना चाहिये। ज्ञान का प्रतिबन्धक (रोकने वाला) अज्ञान है, यह जिनेन्द्रदेव ने कहा है। उसके उदय से जीव अज्ञानी होता है, ऐसा जानना चाहिये। चारित्र का प्रतिबन्धक (रोकने वाला) कषाय है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। उसके उदय से जीव चारित्ररहित होता है, ऐसा जानना चहिये।
As declared by the Omniscient Lord, right faith gets obstructed by wrong belief. When this happens, the Self becomes a wrong believer, so let it be known. As declared by the Omniscient Lord, right knowledge gets obstructed by nescience. When this happens, the Self becomes devoid of right knowledge, so let it be known. As declared by the Omniscient Lord, right conduct gets obstructed by passions. When this happens, the Self becomes devoid of right conduct, so let it be known.
इदि चउत्थो पुण्णपावाधियारो समत्तो
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