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तिदियो कत्तिकमाधियारो
THE DOER AND THE KARMA
जीव के कर्म-बन्ध कैसे होता है .
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जाव ण वेदि विसेसंतरं तु आदासवाण दोन्हं पि । अण्णाणी ताव दु सो कोहादिसु वट्टदे जीवो ॥
कोहादिस वट्टतस्स तस्स कम्मस्स संचओ होदि । जीवस्सेवं बंधो भणिदो खलु सव्वदरिसीहिं ॥
अध्याय - 3
(3-1-69)
(3-2-70)
जीव जब तक आत्मा और आस्रव दोनों के ही ( भिन्न-भिन्न) लक्षण और भेद को नहीं जानता है, तब तक वह अज्ञानी क्रोधादिक आस्रवों में प्रवृत्त रहता है। क्रोधादिक आस्रवों में वर्तते हुए उसके कर्मों का संचय होता है। वास्तव में जीव के इस प्रकार कर्मों का बन्ध सर्वज्ञदेवों ने बताया है।
So long as the soul (jiva) does not recognize the differences in the attributes of the Self and the influx of karmas, it remains ignorant, and indulges in baser emotions like anger. The Omniscients declare that while indulging in anger etc., the soul accumulates karmic matter and, in this manner, bondage takes place.
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