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अध्याय - 2
जीव और वर्णादि का तादात्म्य मानने में दोष -
जीवो चेव हि एदे सव्वे भाव त्ति मण्णसे जदि हि। जीवस्साजीवस्स य णत्थि विसेसो दु दे कोई॥ (2-24-62)
जीव का वर्णादि से तादात्म्य सम्बन्ध मानने वालों को समझाते हुए कहते हैं- यदि तू ऐसा मानता है कि ये समस्त भाव वास्तव में जीव ही हैं तो तेरे मत में जीव और अजीव के मध्य कोई भेद नहीं रहता।
(Refuting those who assume that the soul and its colour etc. are but the same, the Achārya says -) If you maintain that all these attributes really pertain to the soul itself, then, in your opinion, there would be no difference, whatsoever, between the soul and the non-soul.
पूर्वोक्त कथन का और स्पष्टीकरण -
अह संसारत्थाणं जीवाणं तुज्झ होंति वण्णादी। तम्हा संसारत्था जीवा रूवित्तमावण्णा॥
(2-25-63)
एवं पॉग्गलदव्वं जीवो तहलक्खणेण मूढमदी। णिव्वाणमुवगदो वि य जीवत्तं पोंग्गलो पत्तो॥
(2-26-64)
अथवा यदि तेरे मत में संसार में स्थित जीवों के वर्णादिक (तादात्म्य रूप से) होते हैं तो इस कारण संसार में स्थित जीव रूपीपने को प्राप्त हो गये। इस प्रकार हे मूढमते! रूपित्व लक्षण पुद्गल द्रव्य का होने से पुद्गल द्रव्य ही जीव कहलाया और (संसार दशा में ही नहीं) निर्वाण प्राप्त होने पर भी पुद्गल ही जीवत्व को प्राप्त हो गया।
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