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अध्याय - 10
आत्मा को अकर्ता मानने का दुष्परिणाम
पुरिसित्थियाहिलासी इत्थीकम्मं च पुरिसमहिलसदि । एसा आयरियपरंपरागदा एरिसी दु सुदी ||
तम्हा ण को वि जीवो अबंभयारी दु तुम्हमुवदेसे । जम्हा कम्मं चेव हि कम्मं अहिलसदि जं भणिदं ॥
जम्हा घादेदि परं परेण घादिज्जदे य सा पयडी । देणत्थेण दु किर भण्णदि परघादणामे त्ति ॥
(10-29-336)
(10-30-337)
(10-31-338)
तम्हा ण को वि जीवोवघादगो अत्थि तुम्ह उवदेसे । जम्हा कम्मं चेव हि कम्मं घादेदि जं भणिदं ॥
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(10-32-339)
(पूर्वोक्त मत वाले यह भी मानते हैं कि - ) 'पुरुष वेदकर्म स्त्री की अभिलाषा करता है, और स्त्री वेदकर्म पुरुष की अभिलाषा करता है, आचार्य - परम्परा से आई हुई ऐसी श्रुति है; इसलिए तुम्हारे मत में कोई भी जीव अब्रह्मचारी नहीं है।
क्योंकि जो दूसरे को मारता है और दूसरे के द्वारा मारा जाता है, वह भी कर्म है। इसी अर्थ में परघात नामकर्म कहा जाता है; इसलिए तुम्हारे मत में कोई जीव उपघात करने वाला नहीं है, क्योंकि कर्म ही कर्म को मारता है, यह कहा है । '
(It also amounts to -) "The karmic matter of the nature of male