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________________ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद [१४५३-१४५५] हे गौतम ! इस बिजली लत्ता की चंचलता समान जीवतर में शुद्ध भाव से तप, संयम, स्वाध्याय-ध्यान आदि अनुष्ठान में उद्यम करना युक्त है । हे गौतम ! ज्यादा क्या कहे ? आलोचना देकर फिर पृथ्वीकाय की विराधना की जाए फिर कहाँ जाकर उसकी शुद्धि करूँ? हे गौतम ! ज्यादा क्या कहे कि यहाँ आलोचना-प्रायश्चित् करके उस जन्म में सचित्त या रात को पानी का पान करे और अपकाय के जीव की विराधना करे तो वो कहाँ जाकर विशुद्धि पाएंगे ? [१४५६-१४५९] हे गौतम ! ज्यादा कथन क्या करूँ कि आलोयण लेकर फिर तापणा की ज्वाला के पास तपने के लिए जाए और उसका स्पर्श करे या हो जाए तो फिर उसकी शुद्धि कहा होगी ? उस अनुसार वायुकाय के विषय में उस जीव की विराधना करनेवाले कहाँ जाकर शुद्ध होंगे ? जो हरी वनस्पति पुष्प-फूल आदि का स्पर्श करेगा वो कहाँ शुद्ध होगा? उसी तरह बीजकाय को जो चांपेगा वो कहाँ शुद्ध होगा? १४६०-१४६२] दो, तीन, चार इन्द्रियवाले, विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीव को परिताप देकर वो जीव कहाँ शुद्धि पाएगा? अच्छी तरह से जो छ काय के जीव की रक्षा नहीं करेगा वो कहाँ जाकर शुद्धि पा शकेगा ? हे गौतम ! अब ज्यादा क्या कहे ? यहाँ आलोयणा देकर जो भिक्षु त्रस और स्थावर जीव की रक्षा नहीं करेगा तो कहाँ जाकर शुद्धि करेगा ? [१४६३-१४७०] आलोचना, निन्दना, गर्हणा करके प्रायश्चित् करने के लायक निःशल्य बने उत्तम स्थान में रहे पृथ्वीकाय के आरम्भ का परिहार करे, अग्नि का स्पर्श न करे, आलोचनादि प्रायश्चित् करके निःशल्य होकर संवेगवाला होकर उत्तम स्थान में रहा भिक्षु शरण रहित जीव को दर्द न दिलाए, आलोचनादिक करके संवेग पाए हुए भिक्षु छेदित तीनके को या वनस्पति को बार-बार या सहज भी स्पर्श न करे । लगे हुए दोष की आलोचना निन्दना गर्हणा प्रायश्चित् करके शल्यरहित होकर संवेग पाकर भिक्षु उत्तम संयम स्थान में रहा हो वो जीवन के अन्त तक दो, तीन, चार या पाँच इन्द्रियवाले जीव को संघट्टन परिताप की किलामणा उपद्रव आदि अशाता न पेदा करे । आलोचनादि करने के पूर्वक संवेगित गृहस्थ ने लोच के लिए ऊपर फेंककर दी हुई भस्म भी ग्रहण नहीं करता । [१४७१-१४७४] संवेगित शल्यरहित जो आत्मा स्त्री के साथ बातचीत करे तो हे गौतम ! वो कहाँ शुद्धि पाएगा? आलोचनादिक करके संवेगित भिक्षु चौदह के अलावा उपकरण का परिग्रह न करे | वो संयम के साधनभूत उपकरण पर दृढ़ता से, निर्ममत्व, अमूर्छा, अगृद्धि रखे । हे गौतम ! यदि वो पदार्थ पर ममत्व करेगा तो उसकी शुद्धि नहीं होगी। ओर क्या कहे ? इस विषय में आलोचना करके जो रात में पानी का पान किया जाए तो वो कहाँ जाकर शुद्ध करेगा ? [१४७५-१४८२] आलोचना, निन्दा, गर्हणा करके प्रायश्चित् करके निःशल्य भिक्षु पहली छ प्रतिज्ञा की रक्षा न करे तो फिर उसमें भयानक परीणामवाले जो अप्रशस्त भाव सहित अतिक्रम किया हो, मृषावाद, विरमण नाम के दुसरे महाव्रत में तीव्र राग या द्वेष से निष्ठुर, कठिन, कड़े, कर्कश वचन बोलकर महाव्रत का उल्लंघन किया हो, तीसरे अदत्तादान विरमण महाव्रत में रहने की जगह माँगे बिना मालिक की अनुमति लिए बिना उपभोग किया हो या अनचाहा स्थान मिला हो, उसमें राग-द्वेष रूप अप्रशस्त भाव हो उसमें तीसरे महाव्रत का
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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