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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
संथारा करे तो दुवालस, अविधि से संथारा करे तो चऊत्थ, उत्तरपट्टा बिना संथारो करे तो चऊत्थ, दो पड़ का संथारो करे तो चऊत्थ, बीच में जगहवाला, डोरखाली खटियाँ में, नीचे गर्म हो वैसी खटियाँ में बिस्तर में संथारो करे तो १०० आयंबिल, सर्व श्रमणसंघ, सर्व साधर्मिक और सर्व जीवराशि के तमाम जीव को सर्व तरह के भाव से त्रिविध-त्रिविध से न खमाए, क्षमापना न दे और चैत्य की वंदना न की हो, गुरु के चरण कमल में उपधि देह आहारादिक के सागार पच्चकखाण किए बिना कान के छिद्र में कपास की रूई लगाए बिना संथारा में बैठे तो हरएक में उपस्थापन, संथारा में बैठने के बाद यह धर्म-शरीर को गुरु परम्परा से प्राप्त इस श्रेष्ठ मंत्राक्षर' से दश दिशा में साँप, शेर, दुष्ट प्रान्त, हलके वाणमंतर, पिशाच आदि से रक्षा न करे तो उपस्थापन, दश दिशा में रक्षा करके बारह भावना भाखे बिना सो जाए तो पच्चीस आयंबिल । एक ही निद्रा पूर्ण करके जानकर इरियावही पडिक्कमके प्रतिक्रमण के वक्त तक स्वाध्याय न करे तो दुवालस, सोने के बाद दुःस्वप्न या कुःस्वप्न आ जाए तो सौ साँस प्रमाण काऊसग्ग करना । रात में छींक या खाँसी खाए, खटिया, बिस्तर या दंड़ खिसके या आवाज करे तो खमण । दिन या रात को हँसी, क्रीड़ा, कंदर्प, नाथवाद करे तो उपस्थापन।
उस तरह से जो भिक्षु सूत्र का अतिक्रमण करके आवश्यक करे तो हे गौतम ! कारणवाले को मिच्छामि दुक्कड़म् प्रायश्चित् देना । जो अकारणिक हो उसे तो यथायोग्य चऊत्थ आदि प्रायश्चित् कहना, जो भिक्षु शब्द करे, करवाए, गहरे या अगाढ़ शब्द से आवाज लगाए वो हरएक स्थानक में हरएक का हरएक पद में यथायोग्य रिश्ता जड़कर प्रायश्चित देना ।
उस अनुसार जो भिक्षु अपकाय, अग्निकाय या स्त्री के शरीर के अवयव का संघट्टो करे लेकिन भुगते नहीं तो उसे २५ आयंबिल देना, और जो स्त्री को भुगते उस दुरन्त प्रान्त लक्षणवाले का मुँह भी मत देखना । ऐसे उस महापाप कर्म कर्ता को पारंचित प्रायश्चित् ।
अब यदि वो महातपस्वी हो ७० मासक्षपण १०० अधर्ममासक्षपण, १००, दुवालस, १०० चार उपवास, १०० अठ्ठम, १०० छठ्ठ, १०० उपवास, १०० आयंबिल, १०० एकाशन, १०० शुद्ध आचाम्ल, एकाशन (जिसमें लूण मरि या कुछ भी मिश्र न किया हो) १०० निर्विकृतिक, यावत् उलट सूलट क्रम से प्रायश्चित् बताना । यह दिया गया प्रायश्चित् जो भिक्षु विसामा रहित पार लगाए उसे नजदीकी समय में आगे आनेवाला समजना ।
[१३८५] हे भगवंत ! उलट-सूलट कर्म से इस अनुसार सो-सो गिनती प्रमाण हरएक तरह के तप के प्रायश्चित् करे तो कितने समय तक करते रहे ? हे गौतम ! जब तक उस आचार मार्ग में स्थापित हो तब तक करते रहे, हे भगवंत ! उसके बाद क्या करे ? हे गौतम ! उसके बाद कोइ तप करे, कोइ तप न करे, जो आगे बताने के अनुसार तप करते रहते है वो वंदनीय है, पूजनीय है, दर्शनीय है, वो अतिप्रशस्त सुमंगल स्वरूप है, वो सुबह में नाम ग्रहण करने के लायक है । तीनों लोक में वंदनीय है । जो बताए हुए तप का प्रायश्चित् नहीं करता वो पापी है । महापापी है | पापी का भी बड़ा पापी है । दुरन्त प्रान्त अधम लक्षणवाला है । यावत् मुँह देखने के लायक नहीं है ।
[१३८६-१३८७] हे गौतम ! जब यह प्रायश्चित् सूत्र विच्छेद होगा तब चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारों का तेज साँत रात-दिन तक स्फुरायमान नहीं होगा । इसका विच्छेद होगा तब सारे संयम की कमी होगी क्योंकि यह प्रायश्चित् सर्व पाप का प्रकर्षरूप से नाश करनेवाला