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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
[१२५१-१२५३] पहले जन्म में सम्यग्दर्शन, दुसरे जन्म में अणुव्रत, तीसरे जन्म में सामायिक चारित्र, चौथे जन्म में पौषध करे, पाँचवे में दुर्धर ब्रह्मचर्यव्रत, छठू में सचित्त का त्याग, उसके अनुसार साँत, आँठ, नौ, दश जन्म में अपने लिए तैयार किए गए - दान देने के लिए - संकल्प किया हो वैसे आहारादिक का त्याग करना आदि । ग्यारहवे जन्म में श्रमण समान गुणवाला हो । इस क्रम के अनुसार संयत के लिए क्यों नहीं कहते ?
[१२५४-१२५६] ऐसी कठिन बाते सुनकर अल्प बुद्धिवाले बालजन उद्धेग पाए, कुछ लोगों का भरोसा उठ जाए, जैसे शेर की आवाज से हाथी इकट्ठे भाग जाते है वैसे बालजन कष्टकारी धर्म सुनकर दश दिशा में भाग जाते है । उस तरह का कठिन संचय दुष्ट ईच्छावाला
और बूरी आदतवाला सुकुमाल शरीवाला सुनने की भी ईच्छा नहीं रखते । तो उस प्रकार व्यवहार करने के लिए तो कैसे तैयार हो शकते है ? हे गौतम ! तीर्थंकर भगवंत के अलावा इस जगत में दुसरे कोई भी ऐसा दुष्कर व्यवहार करनेवाला हो तो बताओ।
[१२५७-१२६०] जो लोग गर्भ में थे तब भी देवेन्द्र ने अमृतमय अँगूठा किया था। भक्ति से इन्द्र महाराजा आहार भी भगवंत को देते थे । और हमेशा स्तुति भी करते थे । देवलोक में से जब वो चव्य थे और जिनके घर अवतार लिया था उनके घर उसके पुण्यप्रभाव से हमेशा सुवर्ण की दृष्टि बरसती थी । जिनके गर्भ में पेदा हुए हो, उस देश में हर एक तरह की इति उपद्रव, मारीमरकी, व्याधि, शत्रु उनके पुण्य-प्रभाव से चले जाए, पेदा होने के साथ ही आकंपित समुदाय मेरु पर्वत पर सर्व ऋद्धि से भगवंत का स्नात्रमहोत्सव करके अपने स्थान पर गए ।
[१२६१-१२६६] अहो उनका अद्भूत लावण्य, कान्ति, तेज, रूप भी अनुपम है । जिनेश्वर भगवंत के केवल एक पाँव के अंगूठे के रूप के बारे में सोचा जाए तो सर्व देवलोक में सर्व देवता का रूप इकट्ठा करे, उसे क्रोड़ बार क्रोड़ गुना करे तो भी भगवंत के अंगूठे का रूप काफी बढ़ जाता है । यानि लाल अंगारों के बीच काला कोलसा रखा हो उतना रूप में फर्क होता है । देवता ने शरण किए, तीन ज्ञान से युक्त कला समूह के ताज्जुब समान लोक के मन को आनन्द करवानेवाला, स्वजन और बँधु के परिवारवाले, देव और असुर से पूज्य, स्नेही वर्ग की आशा पूरी करनेवाले, भुवन के लिए उत्तम सुख के स्थान समान, पूर्व भव में तप करके उपार्जित भोगलक्ष्मी ऐश्वर्य राज वैभव जो कुछ काफी अरसे से भुगतते थे वो अवधि ज्ञान से जाना कि वाकई यह लक्ष्मी देखते ही नष्ट होने के स्वभाववाली है । अहो यह लक्ष्मी पाप की वृद्धि करनेवाली होते है । तो हम क्या चारित्र नहीं लेते ?
[१२६७-१२६९] जितने में इस तरह के मन के परीणाम होते है, उतने में लोकान्तिक देव वो जानकर भगवंत को बिनती करते है कि हे भगवंत ! जगत के जीव का हित करनेवाला धर्मतीर्थ आप प्रवर्तो । उस वक्त सारे पाप वोसिरावकर देह की ममता का त्याग करके सर्व जगत में सर्वोत्तम ऐसे वैभव का तिनके की तरह त्याग करके इन्द्र के लिए भी जो दुर्लभ है वैसा निसंग उन कष्टकारी घोर अतिदुष्कर समग्र जगत में उत्कृष्ट तप और मोक्ष का आवश्यक कारण स्वरूप चारित्र का सेवन करे ।
[१२७०-१२७४] और फिर जो मस्तक फूट जाए वैसी आवाज करनेवाले इस जन्म के सुख के अभिलाषी, दुर्लभ चीज की ईच्छा करनेवाले होने के बावजूद भी मनोवांछित चीज