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महानिशीथ-५/-/८३९
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अब किसी समय जिसने बल वीर्य पुरुषकार और पराक्रम नहीं छिपाया ऐसे उस सभी शिष्य के परिवार सहित सर्वज्ञ प्ररूपित । आगाम सूत्र उसका अर्थ और उभय के अनुसार, राग, द्वेष, मोह, मिथ्यात्व, ममत्वभाव अहंकार रहित, सभी चीजों में द्रव्य क्षेत्र - काल और भाव से निर्ममत्व हुए, ज्यादा उनके कितने गुण बताए इस तरह खदान, नगर, खेड़, कबड़, मंडप, द्रोणमुख आदि स्थान विशेष मं कई भव्यात्माओ को संसार समान कैदकाने से छुड़ानेवाली ऐसी सुन्दर धर्मकथा का उपदेश देते-देते विचरण करते थे । उसी प्रकार उनके दिन बीतते थे । अब किसी दिन विहा करते करके वो महानुभाव वहाँ आए कि जहाँ पहले हमेशा एक स्थान पर वास करनेवाले रहते थे । यह महा तपस्वी है ऐसा मानकर वंदन कर्म आसन दिया इत्यादिक समुचित्त विनय करके उनका सन्मान किया उस प्रकार वो सुख से वहाँ बैठे । बैठकर धर्मकथादिक के विनोद करवाते हुए वहाँ से जाने के लिए कोशीश करने लगे । तब वो महानुभाग कुवलयप्रभ आचार्य को उन्होंने दुरान्त प्रान्त अधम लक्षणवाले भेश से आजीविका करनेवाले, भ्रष्टाचार सेवन करनेवाले, उन्मार्ग प्रवर्तनेवाले अभिग्राहक मिथ्यादृष्टि ने कहा किहे भगवंत ! यदि आप यहाँ एक वर्षाकाल का चातुर्मास रहने का तय करो तो तुम्हारी आज्ञा से यहाँ उतनते जिन चैत्यालय तय करवाने के लिए हम पर कृपा करके आप यहीं चातुर्मास करो ।
गौतम ! उस समय वो महानुभाव कुवलयप्रभ ने कहा कि अरे प्रिय वचन बोलनेवाले । जो कि जिनायल है, फिर भी यह पाप समान है । मैं कभी भी केवल वचन से भी उसका आचरण नहीं करूँगा । इस प्रकार शास्त्र के सारभूत उत्तम तत्त्व को यथा स्थित अविपरीत निःशंक कहते हुए वो मिथ्यादृष्टि साधुभेशधारी पाखंड़ी के बीच यथार्थ प्ररूपणा से तीर्थंकर नाम गोत्र उपार्जन किया । एक भव बाकी रहे वैसा संसार समुद्र सूखा दिया ।
वहाँ जिसका नाम नहीं लिया जाता वैसा दिष्ट नाम का संघ इकट्ठा करनेवाला था । उसने एवं कईं पापमतिवाले वेशधारी आपस में इकट्ठे होकर हे गौतम ! उस महातपस्वी महानुभाव का जो कुवलयप्रभ नाम था उसके बजाय नाम का विलाप किया । इतना ही नहीं, लेकिन साथ मिलकर ताली देकर 'सावद्याचार्य' ऐसे दुसरे नाम का स्थापन किया । उसी नाम से अब उन्हें बुलाने लगे । वो ही नाम प्रसिद्ध हुआ । हे गौतम ! वैसे अप्रशस्त शब्द से बुलाने के बावजूद भी उसी तरह नाम बोलने के बाद भी वो सहज भी कोपित नहीं हुए थे । [८४०] अब किसी समय दुराचारी अच्छे धर्म से पराङमुख होनेवाले साधुधर्म और श्रावक धर्म दोनों से भ्रष्ट होनेवाला केवल भेष धारण करनेवाले हम प्रवज्या अंगीकार की हैऐसा प्रलाप करनेवाले ऐसे उनको कुछ समय गुजरने के बाद भी वो आपस में आगम सम्बन्धी सोचने लगे कि श्रावक की गैरमोजुदगी में संयत ऐसे साधु ही देवकुल मठ उपाश्रय की देखभाल करे और जिनमंदिर खंड़ित हुए हो, गिर गए हो तो उसका जीर्णोद्धार करवाए, मरम्मत करवाए, यह काम करते करते यदि कोई आरम्भ, समारम्भ हो उसमें साधु हो तो भी उन्हें दोष नहीं लगता । और फिर कुछ लोग ऐसा कहते है कि संयम ही मोक्ष दिलवाता है । कुछ लोग ऐसा कहते है कि जिन प्रासाद जिन चैत्य की पूजा - सत्कार - बलि विधान आदि करने से तीर्थ से शासन की उन्नत्ति - प्रभावना होती है और वो ही मोक्ष गमन का उपाय है । इस प्रकार यथार्थ परमार्थ न समजनेवाले पापकर्मी जो उन्हें ठीक लगे वो मुख से प्रलाप करते थे । उस
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