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________________ २२६ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद आदि दोषवाले आहार पानी ग्रहण करना । भाव ग्रहण एषणा में यहाँ अप्रशस्तपिंड़ का अधिकार है । अप्रशस्तपिंड़ के दश प्रकार बताए है । [५६२] शंकितदोष - आधाकर्मादि दोष की शंकावाला आहार ग्रहण करना । म्रक्षितदोष - सचित्त पृथ्वीकायादि खरड़ित आहार ग्रहण करना । पिहितदोष - सचित्त आदि चीज से ढूंका हुआ हो ऐसा आहार ग्रहण करना । संहृतदोष - जिस बरतन में सचित्त आदि चीज रखी हो, वो खाली करके उससे जो आहार दे उसे ग्रहण करना वो । दायकदोष - शास्त्र में निषेध करनेवाले के हाथ से आहार ग्रहण करना । उन्मिश्रदोष - सचित्त आदि से मिलावट किया गया आहा ग्रहण करना । अपरिणतदोष - सचित्त न हआ हो वो आहार ग्रहण करना । लिप्तदोष - सचित्त आदि से खरड़ित हाथ, बरतन आदि से दे वो आहार ग्रहण करना । छर्दितदोष - जमीं पर गिराते हुए आहार दे उसे ग्रहण करना । [५६३-५६५] शंकित दोष में चार भाँगा होते है । आहार लेते समय दोष की शंका एवं खाते समय भी शंका । आहार लेते समय दोष की शंका लेकिन खाते समय नहीं । आहार लेते समय शंका नहीं लेकिन खाते समय शंका । आहार लेते समय शंका नहीं और खाते समय भी शंका नहीं । चार भांगा में दुसरा और चौथा भांगा शुद्ध है । शंकित दोष में सोलह उदगम के दोष और मक्षित आदि नौ ग्रहण एषणा के दोष ऐसे पचीस दोष में से जिस दोष की शंका हो वो दोष लगता है । जिन-जिन दोष की शंकापूर्वक ग्रहण करे आरे ले तो उस दोष के पापकर्म से आत्मा बँधा जाता है । इसलिए लेते समय भी शंका न हो ऐसा आहार ग्रहण करना और खाते समय भी शंका न हो ऐसा आहार खाना शुद्ध भांगा है । छद्मस्थ साधु अपनी बुद्धि के अनुसार उपयोग नहीं रखने के बावजूद भी अशुद्ध-दोषवाला आहार लिया जाए तो उसमें साधु को कोई दोष नहीं लगता । क्योंकि श्रुतज्ञान प्रमाण से वो शुद्ध बनता है । [५६६-५७२] आम तोर पर पिंड निर्युक्त आदि शास्त्र में बताई विधि का कल्प्यअकल्प्य की सोच करनेलायक श्रुतज्ञानी छद्मस्थ साधु शुद्ध समजकर शायद अशुद्ध दोषवाला आहार भी ग्रहण करे और वो आहार केवलज्ञानी को दे, तो केवलज्ञानी भी वो आहार दोषवाला जानने के बाद भी लेते है । क्योंकि यदि न ले तो श्रुतज्ञान अप्रमाण हो जाए । श्रुतज्ञान अप्रमाण होने से, पूरी क्रिया निष्फल हो जाए छद्मस्थ जीव को श्रुतज्ञान बिना उचित सावद्य, निखद्य, पापकारी, पापरहित विधि, निषेध आदि क्रियाकांड का ज्ञान नहीं हो शकता । श्रुतज्ञान अप्रमाण होने से चारित्र की कमी होती है । चारित्र की कमी होने से मोक्ष की कमी होती है । मोक्ष की कमी होने से दीक्षा की सारी प्रवृत्ति निरर्थक - व्यर्थ होती है । क्योंकि दीक्षा का मोक्ष के अलावा दुसरा कोई प्रयोजन नहीं है । . [५७३-५८१] म्रक्षित (लगा हुआ - चिपका हुआ) दो प्रकार से - सचित्त और अचित्त । सचित्त म्रक्षित तीन प्रकार से - पृथ्वीकाय म्रक्षित, अपकाय म्रक्षित, वनस्पतिकाय प्रक्षित । अचित् प्रक्षित दो प्रकार से - लोगों में तिरस्कार रूप, माँस, चरबी, रूधिर आदि से मक्षित, लोगों में अनिन्दनीय घी आदि से प्रक्षित ।। सचित्त पृथ्वीकाय म्रक्षित - दो प्रकार से । शुष्क, आर्द्र । सचित्त अपकाय प्रक्षित - चार प्रकार से । पुर-कर्म स्निग्ध, पुर-कर्म आर्द्र, पश्चात्कर्म स्निग्ध, पश्चात्कर्म आर्द्र । पुरःकर्म साधु को वहोराने के लिए हाथ आदि पानी से साफ करे । पश्चात्कर्म - साधु को वहोराने के
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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