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________________ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद २२२ प्राघुर्णक, वृद्ध एवं संघ आदि की विशेष कारण से मायापिंड़ ले शकते है । [५१९-५२१] रस की आसक्ति से 'सिंह केसरिया लड्डू, घेबर आदि आज मैं ग्रहण करूँगा ।' ऐसा सोचकर गोचरी के लिए जाए, दुसरा कुछ मिलता हो तो ग्रहण न करे लेकिन अपनी इच्छित चीज पाने के लिए काफी घूमे और इच्छित चीज चाहिए उतनी पाए उसे लोभपिंड़ कहते है । साधु को ऐसी लोभपिंड़ दोषवाली भिक्षा लेना न कल्पे । चंपा नाम की नगरी में सुव्रत नाम के साधु आए हुए थे । एक बार वहाँ लड्डू का उत्सव था इसलिए लोगों प्रकार - प्रकार के लड्डू बनाए थे और खाते थे । सुव्रत मुनि ने गोचरी के लिए नीकलते ही मन में तय किया कि, 'आज तो सिंहकेसरिया लड्डु भिक्षा में लेने है ।' चंपानगरी में एक घर से दूसरे घर घूमते है, लेकिन सिंहकेसरीआ लड्डू नहीं मिलते । घूमते-घूमते दो प्रहर बीत गए लेकिन लड्डू नहीं मिला, इसलिए नजर लड्डू में होने से मन भटक गया । फिर तो घर में प्रवेश करते हुए 'धर्मलाभ' की बजाय 'सिंहकेसरी' बोलने लगे । ऐसे ही पूरा दिन बीत गया लेकिन लड्डू न मिले । रात होने पर भी घूमना चालू रहा । रात के दो प्रहर बीते होंगे वहीं एक गीतार्थ और बुद्धिशाली श्रावक के घर में 'सिंहकेसरी' बोलते हुए प्रवेश किया । श्रावक ने सोचा, दिन में घुमने से सिंहकेसरी लड्डू नहीं मिला इसलिए मन भटक गया है । यदि सिंहकेसरी लड्डू मिले तो चित्त स्वस्थ हो जाए ।' ऐसा सोचकर श्रावक ने 'पधारो महाराज' सिंह केसरिया लड्डू का पूरा डिब्बा लेकर उनके पास आकर कहा कि, 'लो महाराज सिंह केसरिया लड्डू | ग्रहण करके मुझे लाभ दो ।' मुनि ने लड्डू ग्रहण किए । पात्रा में सिंहकेसरिया लड्डू आने से उनका चित्त स्वस्थ हो गया । श्रावक ने मुनि को पूछा कि, 'भगवन् ! आज मैंने पुरिमड्ड का पञ्चकखाण किया है, तो वो पूरा हुआ कि नहीं ?' सुव्रत मुनि ने समय देखने के लिए आकाश की ओर देखा, तो आकाश में कई तारों के मंड़ल देखे और अर्ध रात्रि होने का पता चला । अर्धरात्री मालूम होते ही मुनि सोच में पड़ गए । अपना चित्तभ्रम जाना । हा ! मूर्ख ! आज मैंने क्या किया ? अनुचित आचरण हो गया । धिक्कार है मेरे जीवन को, लालच में अंध होकर दिन और रात तक घूमता रहा । यह श्रावक उपकारी है कि सिंहकेसरी लड्डू वहोराकर मेरे आँखे खोल दी ।' मुनि ने श्रावक को कहा कि, महाश्रावक ! तुमने अच्छा किया सिंहकेसरी लड्डू देकर पुरिमड्ड पञ्चकखाण का समय पूछकर संसार में डूबने से बचाया । रात को ग्रहण करने से अपनी आत्मा की निंदा करते हुए और लड्डू परठवते हुए शुक्ल ध्यान में बैठे, क्षपकश्रेणी से लेकर लड्डू के चूरे करते हुए आत्मा पर लगे घाती कर्मको भी चूरा कर दिया । केवलज्ञान हुआ । इस प्रकार लोभ से भिक्षा लेना न कल्पे । [ ५२२-५३१] संस्तव यानि प्रशंसा । वो दो प्रकार से है । १. सम्बन्धी संस्तव, २. वचन संस्तव । सम्बन्धी संस्तव परिचय समान है और प्रशंसा वचन बोलना वचन संस्तव है। संबंधी संस्तव में पूर्व संस्तव और पश्चात् संस्तव । वचन संस्तव में भी पूर्व संस्तव और पश्चात् संस्तव ये दो भेद होते है । सम्बन्धी पूर्व संस्तव - माता-पितादि के रिश्ते से पहचान बनाना । साधु भिक्षा के लिए घुमते हुए किसी के घर में प्रवेश करे, वहाँ आहार की लंपटता से अपनी और सामनेवाले की उम्र जानकर उम्र के रिश्ते से बोले । यदि वो स्त्री वृद्धा और खुद मध्यम आयु का हो तो कहें कि, 'मेरी माँ तुम जैसी थी ।' वो स्त्री मध्यम उम्र की हो तो कहे कि, 'मेरी बहन
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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