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पिंडनियुक्ति-४२२
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से अध्यपूरकदोष का निर्णय कर शकते है ।
___ इस प्रकार उद्गम के सोलह दोष हुए । उसमें कुछ विशोधि कोटि के है और कुछ अविशोधि कोटि के है ।
४२३-४२८] विशोधिकोटि-यानि जितना साधु के लिए सोचा या पकाया हो उतना दूर किया जाए तो बाकी बचा है उसमें से साधु ग्रहण कर शके यानि साधु को लेना कल्पे।
अविशोधिकोटि - यानि उतना हिस्सा अलग करने के बावजूद भी साधु ग्रहण न कर शके ऐसा । यानि साधु को लेना न कल्पे । जिस पात्र में ऐसा यानि अविशोधि कोटि आहार ग्रहण हो गया हो तो उस पात्र में से ऐसा आहार नीकालकर उस पात्र को भस्म आदि से तीन बार साफ करने के बाद उस पात्र में दुसरा शुद्ध आहार लेना कल्पे ।
आधाकर्म, सर्वभेद, विभाग उद्देश के अंतिम तीन भेद, समुद्देश, आदेश और समादेश। बादर भक्तपान पूति । मिश्रदोष के अंतिम दो भेद पाखंड़ी मिश्र और साधु मिश्र, बादर प्राभृतिका, अध्यवपूरक के अंतिम दो स्वगृह पाखंडी अध्यपूरक और साधु अध्यवपूरक छह दोष में से दश भेद अविशोधि कोटि के है । यानि उतना हिस्सा अलग करने के बावजूद भी बाकी का साधु को लेना या खाना न कल्पे । बाकी के दुसरे दोष विशोधि - कोटि के है।
उद्देशिक के नौ भेद, पूतिदोष, यावदर्थिक मिश्र, यावदर्थिक अध्यवपूरक, परिवर्तित, अभ्याहृत, मालापहृत, आच्छेद्य, अनिसृष्ट, पादुष्करण क्रीत, प्रामित्य सूक्ष्म प्राभृतिका, स्थापना के दो प्रकार । यह सभी विशोधिकोटि के मानना ।
भिक्षा के लिए घुमने से पात्र में पहले शुद्ध आहार ग्रहण किया हो, उसके बाद अनाभोग आदि के कारण से विशोधि कोटि दोषवाला ग्रहण किया हो, पीछे से पता चले कि यह तो विशोधिकोटि दोषवाला था । तो ग्रहण किए हुए आहार बिना यदि गुजारा हो शके तो वो सारा आहार परठवे यदि गुजारा न हो शके तो जितना आहार विशोधि दोषवाला था उसे अच्छी प्रकार से देखकर निकाल है । अब यदि समान वर्ण और गंधवाला हो यानि पहचान शके ऐसा न हो या इकट्ठा हो गया हो या तो प्रवाही हो तो वो सारा परठवे । फिर भी किसी सूक्ष्म अवयव पात्र में रह गए हो तो भी दुसरा शुद्ध आहार उस पात्र में लाना कल्पे। क्योंकि वो आहार विशोधिकोटि का था इसलिए ।
[४२९] विवेक (परठना) चार प्रकार से - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । द्रव्य विवेक - दोषवाले द्रव्य का त्याग । क्षेत्र विवेक - जिस क्षेत्र में द्रव्य का त्याग करे वो, काल विवेक, पता चले कि तुरन्त देर करने से पहले त्याग करे । भाव विवेक - भाव से मूर्छा रखे बिना उसका त्याग करे वो या असठ साधु जिन्हें दोषवाला देखे उसका त्याग करे । पात्र में इकट्ठी हुई गोचरी बिना गुजारा हो शके ऐसा न हो तो सारा शुद्ध और दोषवाले आहार का त्याग करे। गुजारा हो शके ऐसा न हो तो दोषवाले आहार का त्याग करे ।
[४३०-४३२] अशुद्ध आहार त्याग करने में नीचे के अनुसार चतुर्भगी बने । शुष्क और आर्द्र दोनो समान चीज में गिरा हुआ और अलग चीज में गिरा हुआ उसके चार प्रकार है - १. एकदम शुष्क, २. शुष्क में आर्द्र, ३. आर्द्र में शुष्क, ४. आर्द्र में आर्द्र । शुष्क से शुष्क - शुष्क चीज में दुसरी चीज हो, यानि वाल, चने आदि सूखे है । वाल में चने हो या चने में वाल हो तो वो सुख से अलग कर शकते है | चने में चने या वाल में वाल हो तो जो जितने दोषवाले हो उतने कपट बिना अलग कर देना, बाकी के कल्पे । शुष्क