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________________ पिंडनियुक्ति-३४३ २०३ दो प्रकार से है । १. द्रव्य से और २. भाव से । द्रव्य के और भाव के दो-दो प्रकार - आत्मक्रीत और परक्रीत | पद्धव्यक्रीत तीन प्रकार से । सचित्त, अचित्त और मिश्र । आत्मद्रव्यक्रीत - साधु अपने पास के निर्माल्यतीर्थ आदि स्थान में रहे प्रभावशाली प्रतिमा की - १. शेष-चावल आदि, २. बदबूं - खुश्बु द्रव्य वासक्षेप आदि, ३. गुटिका रूप परावर्तन कारी जड़ीबुट्टी आदि, ४. चंदन, ५. वस्त्र का टुकड़ा आदि गृहस्थ को देने से गृहस्थ भक्त बने और आहारादि अच्छा और ज्यादा दे । वो आत्मद्रव्यकीत माना जाता है । ऐसा आहार साधु को न कल्पे । क्योकि चीज देने के बाद कोई बिमार हो जाए तो शासन का ऊड्डाह होता है | इस साधु ने हमें बिमार बनाया, कोइ बिमार हो और अच्छा हो जाए तो कईं लोगों को बताए कि, "किसी साधु ने मुझे कुछ चीज दी, उसके प्रभाव से मैं अच्छा हो गया ।' तो इससे अधिकरण हो । ___आत्मभावक्रीत - आहारादि अच्छा मिले इस लिए व्याख्यान करे । वाक्छटा से सुनानेवाले को खींचे, फिर उनके पास जाकर माँगे या सुननेवाले हर्ष में आ गए हो तब माँगे यह आत्मभावक्रीत । किसी प्रसिद्ध व्याख्यानकार उनके जैसे आकारवाले साधु को देखकर पूछे कि, "प्रसिद्ध व्याख्यानकार कहलाते है वो तुम ही हो ?' तब वो चूप रहे । या तो कहे कि साधु ही व्याख्यान देते है दुसरे नहीं ।' इसलिए वो समजे कि, 'यह वो ही साधु है । गम्भीर होने से अपनी पहचान नहीं देते । इस प्रकार गृहस्थ भिक्षा ज्यादा और अच्छी दे । खुद समय नहीं होने के बावजुद भी समयरूप बताने से आत्मभावक्रीत होता है । कोई पूछे कि कुशल वक्ता क्या तुम ही हो ? तो कहे कि, भीखारा उपदेश देते है क्या ?' या फिर कहे कि क्या मछवारा, गृहस्थ, स्वाला, सिर मुंडवाया हो और संसारी हो वो वक्ता होंगे? इस प्रकार जवाब दे इसलिए पूछनेवाला उन्हें वक्ता ही मान ले और ज्यादा भिक्षा दे । इसे भी आत्मभावक्रीत कहते है । इस प्रकार वादी, तपस्वी, निमित्तक के लिए भी ऊपर के अनुसार उत्तर दे । या आहारादि के लिए लोगों को कहे कि, 'हम आचार्य है, हम उपाध्याय है ।' आदि । इस प्रकार पाया हुआ आहार आदि आत्मभावक्रीत कहलाता है । ऐसा आहार साधु को न कल्पे । परद्रव्यक्रीत - साधु के लिए किसी आहारादि बिकता हुआ लाकर दे । वो सचित्त चीज देकर खरीदे, अचित्त चीज देकर खरीदे या मिश्र चीज देकर खरीदे उसे परद्रव्यक्रीत कहते है । इस प्रकार लाया गया आहार साधु को न कल्पे । परभावक्रीत जो तसवीर बताकर भिक्षा माँगनेवाले आदि है वो साधु के लिए अपनी तसवीर आदि बताकर चीज खरीदे तो वो परभावक्रीत है । इन दोष में तीन दोष लगते है । क्रीत, अभ्याह्यत और स्थापना । [३४४-३५०] प्रामित्य यानि साधु के लिए उधार लाकर देना । ज्यादा लाना दो प्रकार से । १. लौकिक और २. लोकोत्तर । लौकिक में बहन आदि का दृष्टांत और लोकोत्तर में साधु - साधु में वस्त्र आदि का । कोशल देश के किसी एक गाँव में देवराज नाम का परिवार रहता था । उसको सारिका नाम की बीवी थी । एवं सम्मत आदि कई लड़के और सम्मति आदि कई लड़कियाँ थी । सभी जैनधर्मी थे । उस गाँव में शिवदेव नाम के शेठ थे । उन्हें शिवा नाम की बीवी थी। वो शेठ दुकान में सारी चीजे रखते थे और व्यापार करते थे । एक दिन उस गाँव में श्री समुद्रघोष नाम के आचार्य शिष्यो के साथ पधारे । सभी धर्म सुनाते हुए, उनके उपदेश से सम्मत नाम के लड़के ने आचार्य भगवंत के पास दीक्षा ली । सम्मत साधु गीतार्थ बने ।
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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