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पिंडनियुक्ति-२४१-२७२
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आएगा, इसलिए यहाँ नहीं करते । विभाग औद्देशिक बारह प्रकार से है । वो १. उदिष्ट, २. कृत और ३. कर्म । उन हर एक के चार प्रकार यानि बारह प्रकार होते है । ओघओद्देशिक - पूर्वभव में कुछ भी दिए बिना इस भव में नहीं मिलता । इसलिए कुछ भिक्षा हम देंगे । इस बुद्धि से गृहस्थ कुछ चावल आदि ज्यादा डालकर जो आहारादि बनाए, उस ओघऔद्देशिक कहते है । ओघ-यानि 'इतना हमारा, इतना भिक्षुक का ।' ऐसा हिस्सा किए बिना आम तोर पर किसी भिक्षुक को देने की बुद्धि से तैयार किया गया अशन आदि ओघ औद्देशिक कहलाता है । हिस्सा - यानि विवाह ब्याह आदि अवसर पर बनाई हई चीजे बची हो, उसमें से जो भिक्षुक को ध्यान में रखकर अलग बनाइ हो वो विभाग औद्देशिक कहलाता है । उसके बारह भेद है । वो इस प्रकार
उद्दिष्ट - अपने लिए ही बनाए गए आहार में से किसी भिक्षुक को देने के लिए कल्पना करे कि 'इतना साधु को देंगे' वह । कृत-अपने लिए बनाया हुआ, उसमें से उपभोग करके जो बचा हो वह । भिक्षुक को दान देने के लिए छकायादि का सारंग करे वहा उद्दिष्ट, कृत एवं कर्म प्रत्येक के चार चार भेद । उद्देश-किसी भी भीक्षक को देने के लिए कल्पित। समुद्देश - धूर्त लोगों को देने के लिए कल्पित । आदेश - श्रमण को देने के लिए कल्पित। समादेश - निर्ग्रन्थ को देने के लिए कल्पित ।
उद्दिष्ट, उदेशिक - छिन्न और अछिन्न । छिन्न - यानि हमेशा किया गया यानि जो बचा है उसमें से देने के लिए अलग नीकाला हो वो । अछिन्न अलग न नीकाला हो लेकिन उसमें से भिक्षाचरो को देना ऐसा उद्देश रखा हो । छिन्न और अछिन्न दोनों में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ऐसे आँठ भेद होते है । कृत उद्देशिक, छिन्न और अछिन दोनों में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ऐसे आँठ भेद । कर्म उद्देशिक ऊपर के अनुसार आँठ भेद । द्रव्यअछिन्न-बची हुइ चीजे देना तय करे । क्षेत्रअछिन्न - घर के भीतर रहकर या बाहर रहकर देना । काल अछिन्न - जिस दिन बचा हो उसी दिन या कोई भी दिन देने का तय करे । भावअछिन्न- गृहनायक - घर के मालिक देनेवाले के घर की स्त्री आदि को बोले कि, तुम्हें पसन्द हो तो दो वरना मत दो।' द्रव्यछिन्न - कुछ चीज या इतनी चीजे देने का तय किया हो । क्षेत्रछिन्न - घर के भीतर से या बाहर से किसी भी एक स्थान पर ही देने का तय किया हो । काल छिन्न - कुछ समय से कुछ समय तक ही देने का तय किया हो वो । भावछिन्न-तुम चाहो उतना ही देना ।' ऐसा कहा हो वो ।
ओघ औद्देशिक का स्वरूप-अकाल पूरा हो जाने के बाद किसी गृहस्थ सोचे कि, 'हम मुश्किल से जिन्दा रहे, तो रोज कितनी भिक्षा देंगे ।' पीछले भव में यदि न दिया होता तो इस भव में नहीं मिलता, यदि इस भव में नहीं देंगे तो अगले भव में भी नहीं मिलेगा । इसलिए अगले भव में मिले इसके लिए भिक्षुक आदि को भिक्षा आदि देकर शुभकर्म का उपार्जन करे ।' इस कारण से घर की मुखिया स्त्री आदि जितना पकाते हो उसमें धूतारे, गृहस्थ आदि आ जाए तो उन्हें देने के लिए चावल आदि ज्यादा पकाए । इस प्रकार रसोई पकाने से उनका ऐसा उद्देश नहीं होता कि, 'इतना हमारा और इतना भिक्षुक का । विभाग रहित होने से इसे ओघ औद्देशिक कहते है ।
छद्मस्थ साधु को ‘यह आहारादि ओघ औद्देशिक के या शुद्ध आहारादि है' उसका कैसे पता चले ? उपयोग रखा जाए तो छद्मस्थ को भी पता चल शके कि, 'यह आहार ओघ