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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
से मोक्ष के आशयवाले होकर उपयोग से पथ को ग्रहण करते है या छोड़ देते है । जो कि बाहरी चीज को आश्रित करके साध को हत्या-जन्य कर्मबंध नहीं होता | तो भी मुनि परीणाम की विशुद्धि के लिए पृथ्वीकाय आदि की जयणा करते है । यदि ऐसी जयणा न करे तो परीणाम की विशुद्धि किस प्रकार टिक पाए ? सिद्धांत में तुल्य प्राणिवध के परीणाम में भी बड़ा अंतर बताया है । तीव्र संकिलष्ट परीणामवाले को साँतवी नरक प्राप्त हो और मंद परीणामवाला कहीं ओर जाए, उसी प्रकार निर्जरा भी परीणाम पर आधारित है । इस प्रकार जो और जितने हेतु संसार के लिए है वो और उतने हेतु मोक्ष के लिए है । अतीत की गिनती करने बैठे तो दोनों में लोग समान आते है । रास्ते में जयणापूर्वक चले तो वो क्रिया मोक्ष के लिए होती है और ऐसे न चले तो वो क्रिया कर्मबंध के लिए होती है । जिनेश्वर परमात्मा ने किसी चीज का एकान्त निषेध नहीं किया । ऐसे एकान्त विधि भी नहीं बताइ । जैसे बिमारी में एक बिमारी में जिसका निषेध है वो दुसरे में विधि भी हो शकती है । जैसे क्रोध आदि सेवन से अतिचार होता है । वो ही क्रोध आदि भाव चंद्राचार्य की प्रकार शायद शुद्धि भी करवाते है । संक्षेप में कहा जाए तो बाहरी चीज को आश्रित करके कर्मबंध न होने के बावजूद साधु सदा जयणा के परीणाम पूर्वक जिन्दा रहे और परीणाम की विशुद्धि रखे । लेकिन क्लिष्ट भाव या अविधि न करे ।
[९९-१००] पहला और दुसरा ग्लान यतना, तीसरा श्रावक, चौथा साधु, पाँचवी वसति, छठा स्थान स्थित (उस अनुसार प्रवेश विधि के बारे में बताते है । गाँव प्रवेश के प्रयोजन को बताते हुए कहते है कि उस विधि का क्या फायदा ?) इहलौकिक और परलौकिक दो फायदे है । पृच्छा के भी दो भेद । उसके भी एक-एक आदि भेद है । . सूचना : ओहनिज्जुति में अब आगे जरुरी भावानुवाद है । उसमें कहीं पर नियुक्ति भाष्य या प्रक्षेप का अनुवाद नहीं भी किया और कहीं द्रोणाचार्यजी की वृत्ति के आधार पर विशेष स्पष्टीकरण भी किए है । मुनि दीपरत्नसागर
[१०१] इहलौकिक गुण : जिस काम के लिए साधु नीकला हो उस काम का गाँव में पता चले कि वो वहाँ से नीकल गए है, अभी कुछ जगह पर ठहरे है या तो मासकल्प आदि करके शायद उसी गाँव में आए हए हो, तो इसलिए वही काम पूरा हो जाए ।
पारलौकिक गुण : शायद गाँव में किसी (साधु-साध्वी) बीमार हो तो उसकी सेवा की तक मिले । गाँव में जिन मन्दिर हो तो उनके दर्शन वंदन हो, गाँव में कोइ वादी हो या प्रत्यनीक हो और खुद वादलब्धिसंपन्न हो तो उसे शान्त कर शके ।
[१०२] पृच्छा - गाँव में प्रवेश करने से पृच्छा दो प्रकार से होती है । अविधिपृच्छा, विधिपृच्छा । अविधिपृच्छा - गाँव में साधु है कि नहीं ? साध्वी हो तो उत्तर मिले कि साधु नहीं है । 'साध्वी है कि नहीं ?' तो साधु हो तो उत्तर देनेवाला बोले कि 'साध्वी नहीं है ।' अलावा 'घोड़ा-घोडी' न्याय से शंका भी हो ।
१०३] श्रावक है कि नहीं ऐसा पूछे तो उसे शक हो कि 'इसे यहाँ आहार करना होगा ।' श्राविका विषय पूछे तो उसे शक हो कि जरुर यह बूरे आचारखाला होगा । जिन मंदिर का पूछे तो दुसरे चार हो तो भी न बताए इससे तद्विषयक फायदे की हानि हो । इसलिए विधि पृच्छा करनी चाहिए ।
[१०४-१०७] विधिपृच्छा : गाँव में आने-जाने के रास्ते में खड़े रहकर या गाँव के