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________________ आवस्सयं-५/५५ नमस्कार भी नर या नारी को संसार समुद्र से बचाते है । - [ ५६ ] जिनके दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण (वो तीनों कल्याणक ) उज्जयंत पर्वत के शिखर पर हुए है वो धर्म चक्रवर्ती श्री अरिष्टनेमि को मैं नमस्कार करता हूँ । [५७] चार, आँठ, दश और दो ऐसे वंदन किए गए चौबीस तीर्थंकर और जिन्होंने परमार्थ (मोक्ष) को सम्पूर्ण सिद्ध किया है वैसे सिद्ध मुझे सिद्धि दो । १२५ [ ५८ ] हे क्षमाश्रमण ! मैं इच्छा रखता हुं । ( क्या इच्छा रखता है वो बताते है ) पाक्षिक के भीतर हुए अतिचार की क्षमा माँगने के लिए उसके सम्बन्धी निवेदन करने के लिए उपस्थित हुआ हूँ । (गुरु कहते है खमाओ तब शिष्य बोले ) “इच्छं" । मैं पाक्षिक के भीतर अतिचार को खाता हूँ । पंद्रह दिन और पंद्रह रात में, आहार- पानी में, विनय में, वैयावच्च में, बोलने में, बातचीत करने में, ऊँचा या समान आसन रखने में, बीच में बोलने से, गुरु की ऊपरवट जाकर बोलने में, गुरु वचन पर टीका करने में (आपको ) जो कुछ भी अप्रति या विशेष अप्रीति उत्पन्न हो ऐसा कार्य किया हो और मुझसे कोइ सूक्ष्म या स्थूल कम या ज्यादा विनय रहित व्यवहार हुआ हो जो तुम जानते हो और मैं नहीं जानता, ऐसा कोई अपराध हुआ हो, उसके सम्बन्धी मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । [ ५९ ] हे क्षमाश्रमण (पूज्य ) ! मैं इच्छा रखता हूँ । ( क्या चाहता है वो बताता है ) - और मुझे प्रिय या मंजूर भी है । जो आपका (ज्ञानादि - आराधना पूर्वक पक्ष शुरू हुआ और पूर्ण हुआ वो मुझे प्रिय है) निरोगी ऐसे आपका, चित्त की प्रसन्नतावाले, आतंक से, सर्वथा रहित, अखंड़ संयम व्यापारवाले, अठ्ठारह हजार शीलांग सहित, सुन्दर पंच महाव्रत धारक, दुसरे भी अनुयोग आदि आचार्य उपाध्याय सहित, ज्ञान-दर्शन, चारित्र तप के द्वारा आत्मा को विशुद्ध करनेवाले ऐसा आपका हे भगवंत ! पर्व दिन और अति शुभ कार्य करने के रूप में पूर्ण हुआ । और दुसरा पक्ष भी कल्याणकारी शुरु हुआ तो मुझे प्रिय है । मैं आपको मस्तक के द्वारा मन से सर्वभाव से वंदन करता हूँ । तब आचार्य कहते है - तुम्हारे सर्व के साथ यानि आप सबके साथ सुन्दर आराधना हुई । [ ६०] हे क्षमाश्रमण (पूज्य ) ! मैं (आपको चैत्यवंदना एवं साधुवंदना) करवाने की इच्छा रखता हूँ । विहार करने से पहले आपके साथ था तब मैं यह चैत्यवंदना - साधु वंदना श्री संघ के बदले में करता हूँ ऐसे अध्यावसाय के साथ श्री जिन प्रतिमा को वंदन नमस्कार करके और अन्यत्र विचरण करते हुए, दुसरे क्षेत्र में जो कोई काफी दिन के पर्यायवाले स्थिरवासवाले या नवकल्पी विहारवाले एक गाँव से दुसरे गाँव जाते हुए साधुओ को देखा । उस गुणवान् आचार्यादिक को भी वंदना की, आपकी ओर से भी वंदन किए, जो लघुपर्यायवाले थे उन्होंने भी आपको वंदना की । सामान्य साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका मिले उन्होंने भी आपको वंदना की । शल्य रहित और कषाय मुक्त ऐसे मैंने भी मस्तक से और मन से वंदना की उस आशय से आप पूज्य भी उनको वंदन करो । तब पूज्य श्री कहते है कि- मैं भी वो तुमने किए हुए चैत्य को वंदन करता हूँ [६१] हे क्षमा-श्रमण (पूज्य ) ! मैं भी उपस्थित होकर मेरा निवेदन करना चाहता हूँ । आपका दिया हुआ यह सब कुछ जो मेरे लिए जरुरी है वस्त्र, पात्र, कँबल, रजोहरण, एवं अक्षर, पद, गाथा, श्लोक, अर्थ, हेतु, प्रश्न, व्याकरण आदि स्थविर कल्प को योग्य और बिना माँगे आपने मुझे प्रीतिपूर्वक दिया फिर भी मैंने अविनय से ग्रहण किया वो मेरा पाप मिथ्या हो तब पूज्य श्री कहते है - यह सब पूर्वाचार्य का दिया हुआ है यानि मेरा कुछ भी नहीं ।
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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