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________________ महानिशीथ-८/२/१४९८ १०३ हे भगवंत ! क्या उस ब्राह्मणी का जीव उसके पीछले भव में निग्रंथी श्रमणी थी कि जिसने निःशल्य आलोचना करके यथोपदिष्ट प्रायश्चित् किया ? हे गौतम ! उस ब्राह्मणी के जीवने उसके पीछले भव में काफी लब्धि और सिद्धि प्राप्त की थी ज्ञान, दर्शन, चारित्र रत्न की महाक्रद्धि पाइ थी । समग्र गुण के आधारभूत उत्तम शीलाभूषण धारण करनेवाले शरीवाले, महा तपस्वी युगप्रधान श्रमण अणगार गच्छ के स्वामी थे, लेकिन श्रमणी न थे । हे भगवंत ! किस कर्म के विपाक से गच्छाधिपति होकर उसने स्त्रीपन के कर्म का उपार्जन किया ? हे गौतम ! माया करने के कारण से हे भगवंत ! ऐसा उसे माया के कारण क्या हुआ कि - जिसका संसार दुबला हो गया है । ऐसे आत्मा को भी समग्र पाप के उदय से मिलनेवाला, काफी लोगों से निन्दित, खुशबुदार द्रव्य, घी, शक्कर, अच्छे वसाणे का चूर्ण, प्रमाण इकट्ठे करके बनाए गए पाक के लड्डू के पात्र की तरह सबको भोग्य, समग्र दुःख और क्लेश के स्थानक, समग्र सुख को नीगलनेवाले परम पवित्र उत्तम ऐसे अहिंसा लक्षण स्वरूप श्रमण धर्म के विघ्न समान, स्वर्ग की अर्गला और नरक के द्वार समान, समग्र अपयश, अपकीर्ति, कलंक, क्लेश आदि वैरादि पाप के निधान समान निर्मलकुल को अक्षम्य, अकार्य रूप श्याम काजल समान काले कूचड़े से कलंकित करनेवाला ऐसे स्त्री के स्वभाव को गच्छाधिपतिने उपार्जित किया ? हे गौतम ! गच्छाधिपतिपन में रहे ऐसे उसने छोटे-से छोटी भी माया नहीं की थी । पहले वो चक्रवर्ती राजा होकर परलोक भीरू काम भोग से ऊँबनेवाले ऐसे उसने तीनके की तरह ऐसी चक्रवर्ती की समृद्धि, चौदह रत्न, नवनिधान, चौसठ हजार श्रेष्ठ स्त्रीयां, बत्तीस हजार आज्ञांकित श्रेष्ठ राजा, छन्नु करोड़ गाँव यावत् छह खंड का भारत वर्ष का राज्य, देवेन्द्र की उपमा समान महाराज्य की समृद्धि का त्याग करके, काफी पुण्य से प्रेरित वो चक्रवर्ती निःसंग होकर प्रवज्या अंगीकार की । अल्प समय में समग्र गुणधारी महातपस्वी श्रुतधर बने। योग्य जानकर उत्तम गुरु महाराजाने उसे गच्छाधिपति की अनुज्ञा की । हे गौतम ! वहाँ भी जिसने सद्गति का मार्ग अच्छी तरह से पहचाना है । यथोपदिष्ट श्रमण धर्म को अच्छी तरह से पालन करते, उग्र अभिग्रह को धारण करते, घोर परिषह उपसर्ग को सहते, रागद्वेष कषाय का त्याग करते, आगम के अनुसार विधि से गच्छपालन करके, जीवनपर्यन्त साध्वी का लाया हुआ आहार के परिभोग छोड़ देते, छ काय जीव का समारम्भ वर्जन करते, सहज भी दीव्य औदारिक मैथुन परीणाम न करते, आलोक या परलोक के सांसारिक सुख की आशंसा न करते नियाण, माया शल्य से मुक्त, निःशल्यता से आलोचना, निन्दना गर्हणापूर्वक यथोपदिष्ट प्रायश्चित् सेवन करते प्रमाद के आलम्बन से सर्वथा मुक्त कइ भव में उपार्जित किए ऐसे न खपाए हुए कर्मराशि को जिसने काफी खपाकर काफी अल्प प्रमाणवाले स्त्रीरूप के कारण समान बताए है, कर्म ऐसे उन्होंने बाकी अन्य भव में माया की थी उस निमित्त से बाँधे हुए इस कर्म का उदय हुआ है । हे भगवंत ! अन्य भव में उस महानुभाव ने किस तरह माया की कि जिससे ऐसा भयानक कर्मोदय हुआ ? हे गौतम ! उस गच्छाधिपति का जीव लाख भव के पहले सामान्य राजा की पुत्री के रूप में उत्पन्न हुई । किसी समय शादी के बाद तुरन्त उसका भार मर गया । तब उसके पिताने राजकुमारी को कहा कि, हे भद्रे ! मैं तुम्हें अपने गाँव में से पचास
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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