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महानिशीथ-८/२/१४८४
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सुश्री को कहा कि अरे बालिका ! हमें देर हो रही है, इसलिए तुम्हारी माँ को कहो कि तुम हमे डाँगर का पाला दो । यदि डाँगर का पाला न दिखे या न मिले तो उसके बजाय मुग का पाला दो । तब सुज्ञ श्री धान्य रखने के कोठार में पहुँची और देखती है तो दुसरी अवस्था पाई हुई ब्राह्मणी को देखकर सुज्ञश्री हाहारव करके शोर मचाने लगी । वो सुनकर परिवार सहित वो गोविंद ब्राह्मण और महीयारी आ पहुँचे । पवन और जल से आश्वासन पाकर उन्होंने पूछा कि हे भट्टीदारिका ? यह तुम्हें अचानक क्या हो गया
तब सावध हुई ब्राह्मणी ने प्रत्युत्तर में बताया कि अरे ! तुम रक्षा रहित ऐसी मुझे झहरीले साँप के डंख मत दिलाओ । निर्जल नदी में मुझे मत खड़ा करो । अरे रस्सी रहित स्नेहपाश में जकड़ी हुई ऐसी मुझे मोह में स्थापित मत करो । जैसे कि यह मेरे पुत्र, पुत्री, भतीजे है । यह पुत्रवधू, यह जमाई, यह माता, यह पिता है, यह मेरे भर्तार है, यह मुझे इष्ट प्रिय मनचाहे परिवारवर्ग, स्वजन, मित्र, बँन्धुवर्ग है । वो यहाँ प्रत्यक्ष झूठी मायावाले है । उनकी ओर से बँधुपन की आशा मृग तृष्णा अपनेपन का झूठा भ्रम होता है; परमार्थ से सोचा जाए तो कोइ सच्चे स्वजन नहीं है जब तक स्वार्थ पूरा होता है तब तक माता, पिता, पुत्री, पुत्र, जमाइ, भतीजा, पुत्रवधू आदि सम्बन्ध बनाए रखते है । तब तक ही हरएक को अच्छा लगता है । इष्ट मिष्ट प्रिय स्नेही परिवार के स्वजन वर्ग मित्र बँधु परिवार आदि तब तक ही सम्बन्ध रखते है कि जब तक हरएक का अपना मतलब पूरा होता है । अपने कार्य की सिद्धि में, विरह में कोई किसी की माता नहीं, न कोइ किसी के पिता, न कोई किसी की पुत्री, कोई किसी का जमाइ, न कोई किसी का पुत्र, न कोई किसी की पत्नी, न कोई किसी का भर्तार, न कोई किसी का स्वामी, न कोइ किसी के इष्ट मिष्ट प्रियकान्त परिवार स्वजन वर्ग मित्र बँधु परिवार वर्ग है । क्योंकि देखो तब प्राप्त हुए कुछ ज्यादा नौ वर्ष तक कुक्षि में धारण करके कईं मिष्ट मधुर उष्ण तीखे सूखे स्निग्ध आहार करवाए, स्नान पुरुषन किया, उसका शरीर कपड़े धोए, शरीर दबाया, धन-धान्यादिक दिए । उसे उछेरने की महा कोशिश की । उस समय ऐसी आशा रखी थी कि पुत्र के राज में मेरे मनोरथ पूर्ण होंगे । और स्नेहीजन की आशा पूरी करके मैं काफी सुख में मेरा समय पसार करूँगी । मैंने सोचा था उससे बिलकुल विपरीत हकीकत बनी है । अब इतना जानने और समजने के बाद पति आदि पर आधा पल भी स्नेह रखना उचित नहीं है । जिस अनुसार मेरे पुत्र का वृतान्त बना है उसके अनुसार घर-घर भूतकाल में वृतान्त बने है । वर्तमान में बनते है और भावि में भी बनते रहेंगे । वो बन्धु वर्ग भी केवल अपने कार्य सिद्ध करने के लिए घटिका मुहूर्त्त उतना समय और स्नेह परीणाम टिकाकर सेवा करता है । इसलिए है लोग ! अनन्त संसार के घोर दुःख देनेवाले ऐसे यह कृत्रिम बन्धु और संतान का मुझे कोई प्रयोजन नहीं है । इसलिए अब रात-दिन हंमेशा उत्तम विशुद्ध आशय से धर्म का सेवन करो ।
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धर्म ही धन, इष्ट, प्रिय, कान्त, परमार्थ से हितकारी, स्वजन वर्ग, मित्र, बँधुवर्ग है । धर्म ही सुन्दर दर्शनीयरूप करनेवाला, पुष्टि करनेवाला, बल देनेवाला है । धर्म ही उत्साह करवानेवाला, धर्म ही निर्मल, यश, कीर्ति की साधना करनेवाला है करवानेवाला, श्रेष्ठतम सुख की परम्परा देनेवाला हो तो वो धर्म है । निधान स्वरूप है । आराधनीय है । पोषने के लायक है, पालनीय हैं
। धर्म ही प्रभावना
धर्म ही सर्व तरह के । करणीय है, आचरणीय