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________________ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद प्राण रहित हो जाएँगे । इसलिए तीर्थंकर आदि आप्तपुरुषों ने पहले से यह प्रतिज्ञा बताई है, यह हेतु, कारण और उपदेश दिया है कि इस प्रकार के उपाश्रय में रात को या विकाल में पहले हाथ से टटोल कर फिर पैर रखना चाहिए तथा यतनापूर्वक गमनागमन करना चाहिए । [४२३] वह साधु पथिकशालाओं, आरामगृहों, गृहपति के घरों, परिवाजकों के मठों आदि को देख-जान कर और विचार करके कि यह उपाश्रय कैसा है ? इसका स्वामी कौन है ? फिर उपाश्रय की याचना करे । जैसे कि वहाँ पर या उस उपाश्रय का स्वामी है, समधिष्ठाता है, उससे आज्ञा मांगे और कहे - 'आयुष्मन् ! आपकी इच्छानुसार जितने काल तक और जितना भाग आप देना चाहें, उतने काल तक, उतने भाग में हम रहेंगे ।' गृहस्थ यह पूछे कि “आप कितने समय तक यहाँ रहेंगे ?" इस पर मुनि उत्तर दे - ___ “आयुष्मन् सद्गृहस्थ ! आप जितने समय तक और उपाश्रय के जितने भाग में ठहरने की अनुज्ञा देंगे, उतने समय और स्थान तक में रहकर फिर हम विहार कर जाएँगे । इसके अतिरिक्त जितने भी साधर्मिक साधु आएँगे, वे भी आपकी अनुमति के अनुसार उतने समय और उतने भाग में रहकर फिर विहार कर जाएँगे ।" [४२४] साधु या साध्वी जिस गृहस्थ के उपाश्रय में निवास करें, उसका नाम और गौत्र पहले से जान लें । उसके पश्चात् उसके घर में निमंत्रित करने या न करने पर भी उसके घर का अशनादि चतुर्विध आहार अप्रासुक-अनेषणीय जानकर ग्रहण न करें । [४२५] वह साधु या साध्वी यदि ऐसे उपाश्रय को जाने, जो गृहस्थों से संसक्त हो, अग्नि से युक्त हो, सचित्त जल से युक्त हो, तो उसमें प्राज्ञ साधु-साध्वी को निर्गमन-प्रवेश करना उचित नहीं है और न ही ऐसा उपाश्रय वाचना, यावत् चिन्तन के लिए उपयुक्त है । ऐसे उपाश्रय में कायोत्सर्ग, आदि कार्य न करे । [४२६] वह साधु या साध्वी यदि ऐसे उपाश्रय को जाने, जिसमें निवास के लिए गृहस्थ के घर में से होकर जाना पड़ता हो, अथवा जो उपाश्रय गृहस्थ के घर से प्रतिबद्ध है, वहाँ प्राज्ञ साधु का आना-जाना उचित नहीं है, और न ही ऐसा उपाश्रय वाचनादि स्वाध्याय के लिए उपयुक्त है । ऐसे उपाश्रय में साधु स्थानादि कार्य न करे । [४२७] यदि साधु या साध्वी ऐसे उपाश्रय को जाने कि इस उपाश्रय - बस्ती में गृह-स्वामी, उसकी पत्नी, पुत्र-पुत्रियाँ, पुत्रवधुएँ, दास-दासियाँ आदि परस्पर एक दूसरे को कोसती हैं - झिड़कती हैं, मारती-पीटती, यावत् उपद्रव करती हैं, प्रज्ञावान् साधु को इस प्रकार के उपाश्रय में न तो निर्गमन-प्रवेश ही करना योग्य है, और न ही वाचनादि स्वाध्याय करना उचित है । यह जानकर साधु इस प्रकार के उपाश्रय में स्थानादि कार्य न करे । [४२८] साधु या साध्वी अगर जाने, कि इस उपाश्रय में गृहस्थ, उसकी पत्नी, पुत्री यावत् नौकरानियाँ एक-दूसरे के शरीर पर तेल, घी, नवनीत या वसा से मर्दन करती हैं या चुपड़ती हैं, तो प्राज्ञ साधु का वहाँ जाना-आना ठीक नहीं है और न ही वहाँ वाचनादि स्वाध्याय करना । साधु इस प्रकार के उपाश्रय में स्थानादि कार्य न करे । [४२९] साधु या साध्वी यदि ऐसे उपाश्रय को जाने, कि इस उपाश्रय में गृहस्वामी यावत् नौकरानियाँ परस्पर एक दूसरे के शरीर को स्नान करने योग्य पानी से, कर्क से, लोघ्र
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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