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आचार-२/१/२/२/४१०
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या पुआल के ढेर अंडे, बीज, हरियाली, ओस, सचित्त जल, कीड़ीनगर, काई, लीलण - फूलण, गीली मिट्टी, या मकड़ी के जालों से युक्त हैं, तो इस प्रकार के उपाश्रय में वह स्थान, शयन आदि कार्य न करे । यदि वह साधु या साध्वी ऐसा उपाश्रय जाने कि उसमें घास के ढेर या पुआल का ढेर अंडों, बीजों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त नहीं है तो इस प्रकार के उपाश्रय में वह स्थान - शयनादि कार्य करे ।
[४११] पथिकशालाओं में, उद्यान में निर्मित विश्रामगृहों में, गृहस्थ के घरों में, या तापसों के मठों आदि में जहाँ ( — अन्य सम्प्रदाय के) साधु बार-बार आते-जाते हों, वहाँ निर्ग्रन्थ साधुओं को मासकल्प आदि नहीं करना चाहिए ।
[४१२] हे आयुष्मन् ! जिन पथिकशाला आदि में साधु भगवन्तों ने ऋतुबद्ध मासकल्प या वर्षावास कल्प बिताया है, उन्हीं स्थानों में अगर वे बिना कारण पुनः पुनः निवास करते हैं, तो उनकी वह शय्या कालातिक्रान्त दोष युक्त हो जाती है ।
[४१३] हे आयुष्मन् ! जिन पथिकशालाओं आदि में, जिन साधु भगवन्तों ने ऋतुबद्ध कल्प या वर्षावासकल्प बिताया है, उससे दुगुना - दुगुना काल अन्यत्र बिताये बिना पुनः उन्हीं में आकर ठहर जाते हैं तो उनकी वह शय्या उपस्थान दोषयुक्त हो जाती है ।
[ ४१४] आयुष्मन ! इस संसार में पूर्व, पश्चिम, दक्षिण अथवा उत्तर दिशा में कई श्रद्धालु हैं जैसे कि गृहस्वामी, गृहपत्नी, उसकी पुत्र-पुत्रियाँ, पुत्रवधुएँ, धायमाताएँ, दासदासियाँ या नौकर-नौकरानियाँ आदि; उन्होंने निर्ग्रन्थ साधुओं के आचार-व्यवहार के विषय में तो सम्यक्तया नहीं सुना है, किन्तु उन्होंने यह सुन रखा है कि साधु-महात्माओं को निवास के लिए स्थान आदि का दान देने से स्वर्गादि फल मिलता है । इस बात पर श्रद्धा, प्रतीति एवं अभिरूचि रखते हुए उन गृहस्थों ने बहुत से शाक्यादि श्रमणों, ब्राह्मणों, अतिथि-दरिद्रों और भिखारियों आदि के उद्देश्य से विशाल मकान बनवा दिये हैं । जैसे कि लुहार आदि की शालाएँ, देवालय की पार्श्ववर्ती धर्मशालाएँ, सभाएँ, प्रपाएँ दुकानें, मालगोदाम, यानगृह, रथादि बनाने के कारखाने, चूने के कारखाने, दर्भ, चर्म एवं वल्कल के कारखाने, कोयले के कारखाने, काष्ठ-कर्मशाला, श्मशान भूमि में बने हुए घर, पर्वत पर बने हुए मकान, पर्वत की गुफा से निर्मित आवासगृह, शान्तिकर्मगृह, पाषाणमण्डल, उस प्रकार के गृहस्थ निर्मित आवासस्थानों में, निर्ग्रन्थ आकर ठहरते हैं, तो वह शय्या अभिक्रान्तक्रिया से युक्त हो जाती है ।
[४१५] हे आयुष्मन् ! इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में अनेक श्रद्धालु होते हैं, जैसे कि गृहपति यावत् नौकरानियाँ । निर्ग्रन्थ साधुओं के आचार से अनभिज्ञ इन लोगों ने श्रद्धा, प्रतीति और अभिरुचि से प्रेरित होकर बहुत से श्रमण, ब्राह्मण आदि के उद्देश्य से विशाल मकान बनवाए हैं, जैसे कि लोहकारशाला यावत् भूमिगृह । ऐसे लोहकारशाला यावत् भूमिगृहों में चरकादि परिव्राजक शाक्यादि श्रमण इत्यादि पहले नहीं ठहरे हैं । ऐसे मकानों में अगर निर्ग्रन्थ श्रमण आकर पहले ठहरते हैं, तो वह शय्या अनभिक्रान्तक्रिया युक्त हो जाती है । [४१६] इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में कई श्रद्धा भक्ति से युक्त जन हैं, जैसे कि गृहपति यावत् उसकी नौकरानियाँ । उन्हें पहले से ही यह ज्ञात होता है कि ये श्रमण भगवन्त शीलवान् यावत मैथुनसेवन से उपरत होते हैं, इन भगवन्तों के लिए आधाकर्मदोष से युक्त उपाश्रय में निवास करना कल्पनीय नहीं है । अतः हमने अपने प्रयोजन के लिए जो ये