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________________ ८८ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद धोए थे, अब कच्चे पानी से लिप्त नहीं हैं । उस प्रकार के आहार को प्रासुक जानकर या तो साधु स्वयं मांग ले या गृहस्थ स्वयं देने लगे तो वह ग्रहण कर ले । यह पांचवी पिण्डैषणा है । (६) छठी पिण्डैषणा है - '...भिक्षु यह जाने कि गृहस्थ ने अपने लिए या दूसरे के लिए बर्तन में से भोजन निकाला है, परन्तु दूसरे ने अभी तक उस आहार को ग्रहण नहीं किया है. तो उस प्रकार का भोजन गृहस्थ के पात्र में हो या उसके हाथ में हो, उसे प्रासक और एषणीय जानकर मिलने पर ग्रहण करे । यह छठी पिण्डैषणा है । (७) सातवीं पिण्डैषणा है - गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट हुआ साधु या साध्वी वहाँ बहु-उज्झितधर्मिक भोजन जाने, जिसे अन्य बहुत से-द्विपद-चतुष्पद श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, दरिद्र और भिखारी लोग नहीं चाहते, उस प्रकार के भोजन की स्वयं याचना करे अथवा वह गृहस्थ दे तो उसे प्रासुक एवं एषणीय जान कर मिलने पर ले ले । यह सातवीं पिण्डैषणा है । (८) इसके पश्चात् सात पानैषणाएं हैं । इन सात पानैषणाओं में से प्रथम पानैषणा इस प्रकार है - असंतृष्ट हाथ और असंसृष्ट पात्र । इसी प्रकार शेष सब पानैषणाओं का वर्णन समझना । इतना विशेष है कि चौथी पानैषणा में नानात्व का निरूपण है - वह भिक्षु या भिक्षुणी जिन पान के प्रकारों के सम्बन्ध में जाने, यथा- तिल का धोवन, तुष का धोवन, जौ का धोवन (पानी), चावल आदि का पानी, कांजी का पानी, या शुद्ध उष्णजल । इनमें से किसी भी प्रकार के पानी के ग्रहण करने पर निश्चय ही पश्चात्कर्म नहीं लगता हो तो उस प्रकार के पानी को प्रासुक और एषणीय मानकर ग्रहण कर ले । [३९७] इन सात पिण्डैषणाओं तथा सात पानैषणाओं में से किसी एक प्रतिमा को स्वीकार करने वाला साधु इस प्रकार न कहे कि 'इन सब साधु-भदन्तों ने मिथ्यारूप से प्रतिमाएँ स्वीकार की हैं, एकमात्र मैंने ही प्रतिमाओं को सम्यक् प्रकार से स्वीकार किया है ।' (अपितु कहे) जो यह साधु-भगवन्त इन प्रतिमाओं को स्वीकार करके विचरण करते हैं, जो मैं भी इस प्रतिमा को स्वीकार करके विचरण करता हूँ, ये सभी जिनाज्ञा में उद्यत हैं और इस प्रकार परस्पर एक-दूसरे की समाधि-पूर्वक विचरण करते हैं । इस प्रकार जो साधु-साध्वी पिण्डैषणा-पानैषणा का विधिवत् पालन करते हैं, उन्हीं में भिक्षुभाव की या ज्ञानादि आचार की समग्रता है । अध्ययन-१ का मुनिदीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण (अध्ययन-२ शय्येषणा) उद्देशक-१ [३९८] साधु या साध्वी उपाश्रय की गवेषणा करना चाहे तो ग्राम या नगर यावत् राजधानी में प्रवेश करके साधु के योग्य उपाश्रय का अन्वेषण करते हुए यदि यह जाने कि वह उपाश्रय अंडों से यावत् मकड़ी के जालों से युक्त है तो वैसे उपाश्रय में वह साधु या साध्वी स्थान, शय्या और निषीधिका न करे । वह साधु या साध्वी जिस उपाश्रय को अंडों यावत् मकड़ी के जाले आदिसे रहित जाने; वैसे उपाश्रय का यतनापूर्वक प्रतिलेखन एवं
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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