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आचार- २/१/१/६/३७०
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करता हुआ वह अग्निकायिक जीवों की हिंसा करेगा । अतः भिक्षुओं के लिए तीर्थंकर भगवान् ने पहले से ही प्रतिपादित किया है कि उसकी यह प्रतिज्ञा है, यह हेतु है, यह कारण है और यह उपदेश है कि वह ( साधु या साध्वी) अग्नि पर रखे हुए आहार को अप्रासुक और अनेषणीय जानकर प्राप्त होने पर ग्रहण न करे ।
यह (आहार - ग्रहण - विवेक) ही उस भिक्षु या भिक्षुणी की समग्रता है ।
अध्ययन- १ उद्देशक - ७
[३७१] गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि यह जाने कि अनादि चतुर्विध आहार गृहस्थ के यहाँ भींत पर, स्तम्भ पर, मंच पर, घर के अन्य ऊपरी भाग पर, महल पर, प्रासाद आदि की छत पर या अन्य उस प्रकार के किसी ऊँचे स्थान पर रखा हुआ है, तो इस प्रकार के ऊँचे स्थान से उतार कर दिया जाता अशनादि चतुर्विध आहार अप्रासुक एवं अनेषणीय जानकर साधु ग्रहण न करे ।
केवली भगवान् कहते हैं——यह कर्मबन्ध का उपादान — कारण है; क्योंकि असंयत गृहस्थ भिक्षु को आहार देने के उद्देश्य से चौकी, पट्टा, सीढ़ी या ऊखल आदि को लाकर ऊँचा करके उस पर चढ़ेगा । ऊपर चढ़ता हुआ वह गृहस्थ फिसल सकता है या गिर सकता है । उसका हाथ, पैर, भुजा, छाती, पेट, सिर या शरीर का कोई भी अंग टूट जाएगा, अथवा उसके गिरने से प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व का हनन हो जाएगा, वे जीव नीचे दब जाएँगे, परस्पर चिपक कर कुचल जाएँगे, परस्पर टकरा जाएँगे, उन्हें पीड़ाजनक स्पर्श होगा, उन्हें संताप होगा, वे हैरान हो जाएँगे, वे त्रस्त हो जाएँगे, या एक स्थान से दूसरे स्थान पर उनका संक्रमण हो जाएगा, अथवा वे जीवन से भी रहित हो जाएँगे । अतः इस प्रकार के मालाहृत अशनादि चतुर्विध आहार के प्राप्त होने पर भी साधु उसे ग्रहण न करे ।
आहार के लिए गृहस्थ के घर में प्रविष्ट साधु या साध्वी को यह ज्ञात हो जाए कि असंयत गृहस्थ साधु के लिए अशनादि चतुर्विध आहार मिट्टी आदि बड़ी कोठी में से या ऊपर से संकड़े और नीचे से चौड़े भूमिगृह में से नीचा होकर, कुबड़ा होकर या टेढ़ा होकर कर देना चाहता है, तो ऐसे अशनादि चतुर्विध आहार को मालाहत जान कर प्राप्त होने पर भी वह साधु या साध्वी ग्रहण न करे ।
[३७२] साधु या साध्वी यह जाने कि वहाँ अशनादि आहार मिट्टी से लीपे हुए मुख वाले बर्तन में रखा हुआ है तो इस प्रकार का आहार प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे ।
केवली भगवान् कहते हैं— यह कर्म आने का कारण है । क्योंकि असंयत गृहस्थ साधु को आहार देने के लिए मिट्टी से लीपे आहार के बर्तन का मुँह खोलता हुआ पृथ्वीकाय का समारम्भ करेगा तथा अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय तक का समारम्भ करेगा । शेष आहार की सुरक्षा के लिए फिर बर्तन को लिप्त करके वह पश्चात्कर्म करेगा । इसीलिए तीर्थंकर भगवान् ने पहले से ही प्रतिपादित कर दिया है कि साधु-साध्वी की यह प्रतिज्ञा है, यह हेतु है, यह कारण है और यही उपदेश है कि वह मिट्टी से लिप्त बर्तन को खोल कर दिये जाने वाले अशनादि चतुर्विध आहार को अप्रासुक एवं अनेषणीय समझ कर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे ।