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________________ ७६ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद प्रमार्जित किए बिना न खोले, न प्रवेश करे और न उसमें से निकले; किन्तु जिनका घर है, उनसे पहले अवग्रह मांग कर अपनी आंखों से देखकर और प्रमार्जित करके उसे खोले, उसमें प्रवेश करे और उसमें से निकले। [३६३] वह भिक्षु या भिक्षुणी भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करते समय जाने कि बहत-से शाक्यादि श्रमण, ब्राह्मण, दरिद्र, अतिथि और याचक आदि उस गृहस्थ के यहाँ पहले से ही हैं, तो उन्हें देखकर उनके सामने या जिस द्वार से वे निकलते हैं, उस द्वार पर खड़ा न हो। केवली भगवान् कहते हैं यह कर्मों का उपादान है कारण है । पहली ही दृष्टि में गृहस्थ उस मुनि को वहाँ खड़ा देखकर उसके लिए आरम्भ-समारम्भ करके अशनादि चतुर्विध आहार बनाकर, उसे लाकर देगा । अतः भिक्षुओं के लिए पहले से ही निर्दिष्ट यह प्रतिज्ञा है, यह हेतु है, यह उपदेश है कि वह भिक्षु उस गृहस्थ और शाक्यादि भिक्षाचरों की दृष्टि में आए, इस तरह सामने और उनके निर्गमन द्वार पर खड़ा न हो । वह (उन श्रमणादि को उपस्थित) जान कर एकान्त स्थान में चला जाए, वहाँ जाकर कोई आता-जाता न हो और देखता न हो, इस प्रकार से खड़ा रहे । उस भिक्षु को उस अनापात और असंलोक स्थान में खड़ा देखकर वह गृहस्थ अशनादि आहार लाकर दे, साथ ही वह यों कहे “आयुष्मन् श्रमण ! यह अशनादि चतुर्विध आहार मैं आप सब के लिए दे रहा हूँ। आप रुचि के अनुसार इस आहार का उपभोग करें और परस्पर बाँट लें ।" इस पर यदि वह साधु उस आहार को चुपचाप लेकर यह विचार करता है कि “यह आहार मुझे दिया है, इसलिए मेरे ही लिए है," तो वह माया-स्थान का सेवन करता है । अतः उसे ऐसा नहीं करना चाहिए । वह साधु उस आहार को लेकर वहाँ (उन शाक्यादि श्रमण आदि के पास) जाए और उन्हें वह आहार दिखाए, और यह कहे - “हे आयुष्मन, श्रमणादि ! यह अशनादि चतुर्विध आहार गृहस्थ ने हम सबके लिए दिया है । अतः आप सब इसका उपभोग करें और परस्पर विभाजन कर लें ।" । __ ऐसा कहने पर यदि कोई शाक्यादि भिक्षु उस साधु से कहे कि “आयुष्मन् श्रमण ! आप ही इसे हम सबको बांट दें । उस आहार का विभाजन करता हुआ वह साधु अपने लिए जल्दी-जल्दी अच्छा-अच्छा प्रचुर मात्रा में वर्णादिगुणों से युक्त सरस साग, स्वादिष्ट, मनोज्ञ, स्निग्ध, आहार और उनके लिए रूखा-सूखा आहार न रखे, अपितु उस आहार में अमूर्च्छित, अगृद्ध, निरपेक्ष एवं अनासक्त होकर सबके लिए समान विभाग करे । यदि सम-विभाग करते हुए उस साधु को कोई शाक्यादि भिक्षु यों कहे कि - "आयुष्मन् श्रमण ! आप विभाग मत करें । हम सब एकत्रित होकर यह आहार खा-पी लेंगे।" (ऐसी विशेष परिस्थिति में) वह उन के साथ आहार करता हुआ अपने लिए प्रचुर मात्रा में सुन्दर, सरस आदि आहार और दूसरों के लिए रूखा-सूखा; (ऐसी स्वार्थी-नीति न रखे); अपितु उस आहार में वह अमूर्च्छित, अगृद्ध, निरपेक्ष और अनासक्त होकर बिलकुल सम मात्रा में ही खाए-पिए । [३६४] वह भिक्षु या भिक्षुणी यदि यह जाने कि वहाँ शाक्यादि श्रमण, ब्राह्मण, ग्रामपिण्डोलक या अतिथि आदि पहले से प्रविष्ट हैं, तो यह देख वह उन्हें लाँघ कर उस गृहस्थ के घर में न तो प्रवेश करे और न ही दाता से आहारादि की याचना करे परन्तु एकान्त स्थान
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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