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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
शरीरभेद के लिए प्राज्ञ भिक्षु उन्हें (समभाव से) सहन करे ।।
[२६२] शब्द आदि काम विनाशशील हैं, वे प्रचुरतर मात्रा में हो तो भी भिक्षु उनमें रक्त न हो । ध्रुव वर्ण का सम्यक् विचार करके भिक्षु इच्छा का भी सेवन न करे ।
[२६३] आयुपर्यन्त शाश्वत रहनेवाले वैभवों या कामभोगों के लिए कोई भिक्षु को निमन्त्रित करे तो वह उसे (मायाजाल) समझे । दैवी माया पर भी श्रद्धा न करे । वह साधु उस समस्त माया को भलीभाँति जानकर उसका परित्याग करे ।।
२६४] सभी प्रकार के विषयों में अनासक्त और मृत्युकाल का पारगामी वह मुनि तितिक्षा को सर्वश्रेष्ठ जानकर हितकर विमोक्ष त्रिविध विमोक्ष में से) किसी एक विमोक्ष का आश्रय ले ।। - ऐसा मैं कहता हूँ । अध्ययन-८-का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण (अध्ययन-९- उपधानश्रुत)
उद्देशक-१ [२६५] श्रमण भगवान् ने दीक्षा लेकर जैसे विहारचर्या की, उस विषय में जैसा मैंने सुना है, वैसा मैं तुम्हें बताऊँगा । भगवान् ने दीक्षा का अवसर जानकर हेमन्त ऋतु में प्रव्रजित हुए और तत्काल विहार कर गए ।।
२६६] “मैं हेमन्त ऋतु में वस्त्र से शरीर को नहीं ढकूँगा ।" वे इस प्रतिज्ञा का जीवनपर्यन्त पालन करनेवाले और संसार या परीषहों के पारगामी बन गए थे । यह उनकी अनुधर्मिता ही थी ।।
[२६७] भौरे आदि बहुत-से प्राणिगत आकर उनके शरीर पर चढ़ जाते और मँडराते रहते । वे रुष्ट होकर नोंचने लगते । यह क्रम चार मास से अधिक समय तक चलता रहा ।।
[२६८] भगवान् ने तेरह महीनों तक वस्त्र का त्याग नहीं किया । फिर अनगार और त्यागी भगवान महावीर उस वस्त्र का परित्याग करके अचेलक हो गए ।।
[२६९] भगवान् एक-एक प्रहर तक तिरछी भीत पर आँखे गड़ा कर अन्तरात्मा में ध्यान करते थे । अतः उनकी आँखें देखकर भयभीत बनी बच्चों की मण्डली ‘मारो-मारो' कहकर चिल्लाती, बहुत से अन्य बच्चों को बुला लेती ।।
[२७०] गृहस्थ और अन्यतीर्थिक साधु से संकुल स्थान में ठहरे हुए भगवान् को देखकर, कामाकुल स्त्रियाँ वहाँ आकर प्रार्थना करतीं, किन्तु कर्मबन्ध का कारण जानकर सागारिक सेवन नहीं करते थे । अपनी अन्तरात्मा में प्रवेश कर ध्यान में लीन रहते ।।।
[२७१] कभी गृहस्थों से युक्त स्थान मैं भी वे उनमें घुलते-मिलते नहीं थे । वे उनके संसर्ग का त्याग करके धर्मध्यान में मग्न रहते । वे किसी के पूछने पर भी नहीं बोलते थे । अन्यत्र चले जाते, किन्तु अपने ध्यान का अतिक्रमण नहीं करते थे ।।।
[२७२] वे अभिवादन करनेवालों को आशीर्वचन नहीं कहते थे, और उन अनार्य देश आदि में डंडों से पीटने, फिर उनके बाल खींचने या अंग-भंग करनेवाले अभागे अनार्य लोगों को वे शाप नहीं देते थे । भगवान् की यह साधना अन्य साधकों के लिए सुगम नहीं थी ।।