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आचार-१/८/२/२१८
[२१८] वह समनोज्ञ मुनि असमनोज्ञ साधु को अशन-पान आदि तथा वस्त्र-पात्र आदि पदार्थ अत्यन्त आदरपूर्वक न दें, न उन्हें देने के लिए निमन्त्रित करे और न ही उनका वैयावृत्य करे ।- ऐसा मैं कहता हूँ ।
[२१९] मतिमान् महामाहन श्री वर्द्धमान स्वामी द्वारा प्रतिपादित धर्म को भली-भाँति समझ लो कि समनोज्ञ साधु समनोज्ञ साधु को आदरपूर्वक अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछन आदि दे, उन्हें देने के लिए मनुहार करे, उनका वैयावृत्य करे ।-ऐसा मैं कहता हूँ ।
| अध्ययन-८-उद्देशक-३| [२२०] कुछ व्यक्ति मध्यम वय में भी संबोधि प्राप्त करके मुनिधर्म में दीक्षित होने के लिए उद्यत होते हैं । तीर्थंकर तथा श्रुतज्ञानी आदि पण्डितों के वचन सुनकर, मेधावी साधक (समता का आश्रय ले, क्योंकि) आर्यों ने समता में धर्म कहा हैं, अथवा तीर्थंकरों ने समभाव से धर्म कहा है ।
वे काम-भोगों की आकांक्षा न रखनेवाले, प्राणियों का अतिपात और परिग्रह न रखते हुए समग्र लोक में अपरिग्रहवान् होते हैं । जो प्राणियों के लिए दण्ड का त्याग करके पाप कर्म नहीं करता, उसे ही महान् अग्रन्थ कहा गया है ।
ओज अर्थात् राग-द्वेष रहित द्युतिमान् का क्षेत्रज्ञ, उपपात और च्यवन को जानकर (शरीर की क्षण-भंगुरता का चिन्तन करे) ।
[२२१] शरीर आहार से उपचित होते हैं, परीषहों के आघात से भग्न हो जाते हैं; किन्तु तुम देखो, आहार के अभाव में कई एक साधक क्षुधा से पीड़ित होकर सभी इन्द्रियों से ग्लान हो जाते हैं । राग-द्वेष से रहित भिक्षु दया का पालन करता है ।
[२२२] जो भिक्षु सन्निधान-(आहारादि के संचय) के शस्त्र (संयमघातक प्रवृत्ति) का मर्मज्ञ है । वह भिक्षु कालज्ञ, बलज्ञ, मात्रज्ञ, क्षणज्ञ, विनयज्ञ, समयज्ञ होता है । वह परिग्रह पर ममत्व न करनेवाला, उचित समय पर अनुष्ठान करनेवाला, किसी प्रकार की मिथ्या आग्रहयुक्त प्रतिज्ञा से रहित एवं राग और द्वेष के बन्धनों को छेदन करके निश्चिन्त जीवन यापन करता है ।
[२२३] शीत-स्पर्श से कांपते हुए शरीरवाले उस भिक्षु के पास आकर कोई गृहपति कहे - आयुष्मान् श्रमण ! क्या तुम्हें ग्रामधर्म (इन्द्रिय-विषय) तो पीड़ित नहीं कर रहे हैं ? (इस पर मुनि कहता है) - आयुष्मान् गृहपति ! मुझे ग्रामधर्म पीड़ित नहीं कर रहे हैं, किन्तु मेरा शरीर दुर्बल होने के कारण मैं शीत-स्पर्श को सहन करने में समर्थ नहीं हूँ (इसलिए मेरा शरीर शीत से प्रकम्पित हो रहा है) । अग्निकाय को उज्जवलित करना, प्रज्वलित करना, उससे शरीर को थोड़ा-सा भी तपाना या दूसरों को कहकर अग्नि प्रज्वलित करवाना अकल्पनीय है ।
(कदाचित वह गृहस्थ) इस प्रकार बोलने पर अग्निकाय को उज्जवलित-प्रज्वलित करके साधु के शरीर को थोड़ा तपाए या विशेष रूप से तपाए | उस अवसर पर अग्निकाय के आरम्भ को भिक्षु अपनी बुद्धि से विचारकर आगम के द्वारा भलीभाँति जानकर उस गृहस्थ से कहे कि अग्नि का सेवन मेरे लिए असेवनीय है । -ऐसा मैं कहता हूँ ।