________________
आचार- १/८/१/२११
५३
कर लिया हो या न किया हो, मार्ग सीधा हो या टेढा हो; हमसे भिन्न धर्म का पालन करते हुए भी तुम्हें (यहाँ अवश्य आना है) । (यह बात ) वह ( उपाश्रय में) आकर कहता हो या चलते हुए कहता हो, अथवा उपाश्रय में आकर या मार्ग में चलते हुए वह अशन-पान आदि देता हो, उनके लिए निमंत्रित करता हो, या वैयावृत्य करता हो, तो मुनि उसकी बात का बिल्कुल अनादर करता हुआ ( चुप रहे ) । ऐसा मैं कहता हूँ । [२१२] इस मनुष्य लोक में कई साधकों को आचार - गोचर सुपरिचित नहीं होता । वे इस साधु-जीवन में आरम्भ के अर्थी हो जाते हैं, आरम्भ करने वाले के वचनों का अनुमोदन करने लगते हैं । वे स्वयं प्राणिवध करते हैं, दूसरों प्राणिवध कराते हैं और प्राणिवध
-
।
अथवा वे अदत्त का ग्रहण करते हैं ।
करनेवाले का अनुमोदन करते हैं अथवा वे विविध प्रकार के
1
वचनों का प्रयोग करते हैं । जैसे कि लोक हैं, लोक नहीं है । लोक ध्रुव हैं, लोक अध्रुव है । लोक सादि है, लोक अनादि हैं । लोक सान्त है, लोक अनन्त है । सुकृत हैं, दुष्कृत है । कल्याण है, पाप है । साधु हैं, असाधु है । सिद्धि है, सिद्धि नहीं है । नरक है, नरक नहीं है ।
इस प्रकार परस्पर विरुद्ध वादों को मानते हुए अपने-अपने धर्म का प्ररूपण करते हैं, इनमें कोई भी हेतु नहीं है, ऐसा जानो । इस प्रकार उन का धर्म न सु-आख्यात होता है और
प्ररूप ।
[२१३] जिस प्रकार से आशुप्रज्ञ भगवान् महावीर ने इस सिद्धान्त का प्रतिपाद किया हैं, वह (मुनि) उसी प्रकार से प्ररूपणसम्यग्वाद का निरूपण करे; अथवा वाणी विषयक गुप्त से (मौन) रहे । ऐसा मैं कहता हूँ । ( वह मुनि उन मतवादियों से कहे - ) ( आप के दर्शनों में आरम्भ ) पाप सर्वत्र सम्मत है । मैं उसी (पाप) का निकट से अतिक्रमण करके ( स्थित हूँ) यह मेरा विवेक (विमोक्ष) कहा गया है
I
।
धर्म ग्राम में होता है, अथवा अरण्य में ? वह न तो गाँव में होता है, न अरण्य में, उसी ( सम्यग् आचरण) को धर्म जानो, जो मतिमान् महामाहन भगवान् ने प्रवेदित किया (बतलाया ) है ।
(उस धर्म के) तीन याम १. प्राणातिपात विरमण, २. मृषावाद-विरमण, ३. अदत्तादानविरमण रूप तीन महाव्रत कहे गए हैं, उन (तीनों यामों) में ये आर्य सम्बोधि पाकर उस त्रियाम रूप धर्म का आचरण करने के लिए सम्यक् प्रकार से उत्थित होते हैं; जो शान्त हो गए हैं; वे (पापकर्मों के) निदान से विमुक्त कहे गए हैं ।
[२१४] ऊँची, नीची एवं तिरछी, सब दिशाओं में सब प्रकार से एकेन्द्रियादि जीवों में से प्रत्येक को लेकर कर्म-समारम्भ किया जाता हैं । मेधावी साधक उस का परिज्ञान करके, स्वयं इन षट्जीवनिकायों के प्रति दण्ड समारम्भ न करे, न दूसरों से इन जीवनिकायों के प्रति दण्ड समारम्भ करवाए और न ही जीवनिकायों के प्रति दण्डसमारम्भ करने वालों का अनुमोदन करे । जो अन्य (भिक्षु) इन जीवनिकायों के प्रति दण्डसमारम्भ करते हैं, उनके कार्य से भी हम लज्जित होते हैं ।
1
इसे दण्डभीरु मेधावी मुनि परिज्ञात करके उस दण्ड का अथवा मृषावाद आदि किसी
ऐसा मैं कहता हूँ ।
-
अन्य दण्ड का समारम्भ न करे
।
-