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आचार-१/५/५/१५९
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के बीच रहते हुए भी अनारम्भजीवी हैं । इस सावध से उपरत अथवा आहेतुशासन में स्थित अप्रमत्त मुनि ख़यह सन्धि है' - ऐसा देखकर उसे क्षीण करता हुआ (क्षण भर भी प्रमाद न करे) ।
'इस औदारिक शरीर का यह वर्तमान क्षण है,' इस प्रकार जो क्षणान्वेषी है, (वह सदा अप्रमत्त रहता है) । यह (अप्रमाद का) मार्ग आर्यों ने बताया है ।
(साधक मोक्षसाधना के लिए) उत्थित होकर प्रमाद न करे । प्रत्येक का दुःख और सुख (अपना-अपना स्वतन्त्र होता है) यह जानकर प्रमाद न करे ।
इस जगत् में मनुष्य पृथक्-पृथक् विभिन्न अध्यवसाय वाले होते हैं, (इसलिए) उनका दुःख भी पृथक्-पृथक् होता है - ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है ।
वह साधक किसी भी जीव की हिंसा न करता हुआ, वस्तु के स्वरूप को अन्यथा न कहे | परीषहों और उपसर्गों का स्पर्श हो तो उनसे होने वाले दुःखस्पर्शों को विविध उपायों से प्रेरित होकर समभावपूर्वक सहन करे ।
[१६०] ऐसा साधक शमिता या समता का पारगामी, कहलाता है ।
जो साधक पापकर्मों में आसक्त नहीं हैं, कदाचित् उन्हें आतंक स्पर्श करें, ऐसे प्रसंग पर धीर (वीर) तीर्थंकर महावीर ने कहा कि 'उन दुःखस्पर्शों को (समभावपूर्वक) सहन करें ।'
यह प्रिय लगने वाला शरीर पहले या पीछे अवश्य छूट जाएगा । इस रूप-देह के स्वरूप को देखो, छिन्न-भिन्न और विध्वंस होना, इसका स्वभाव है । यह अध्रुव, अनित्य, अशाश्वत है, इसमें उपचय-अपचय होता है, परिवर्तन होते रहना इसका स्वभाव है ।
[१६१] जो आत्म-रमण रूप आयतन में लीन है, मोह ममता से मुक्त है, उस हिंसादि विरत साधक के लिए संसार-भ्रमण का मार्ग नहीं है - ऐसा मैं कहता हूँ ।
[१६२] इस जगत् में जितने भी प्राणी परिग्रहवान् हैं, वे अल्प या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित या अचित्त वस्तु का परिग्रहण करते हैं । वे इन में (मूर्छा के कारण) ही परिग्रहवान् हैं । यह परिग्रह ही परिग्रहियों के लिए महाभय का कारण होता है । साधको ! असंयमी-परिग्रही लोगों के वित्त - या वृत्त को देखो । (इन्हें भी महान भय रूप समझो) ।
जो (परिग्रहजनित) आसक्तियों को नहीं जानता, वह महाभय को पाता है ।।
[१६३] (परिग्रह महाभय का हेतु है) यह सम्यक् प्रकार से प्रतिबुद्ध है और सुकथित है, यह जानकर, हे परमचक्षुष्मान् पुरुष ! तू (परिग्रह से मुक्त होने को) पुरुषार्थ कर ।
(जो परिग्रह से विरत हैं) उनमें ही ब्रह्मचर्य होता है । - ऐसा मैं कहता हूँ ।
मैंने सुना है, मेरी आत्मा में यह अनुभूत हो गया है कि बन्ध और मोक्ष तुम्हारी आत्मा में ही स्थित हैं । इस परिग्रह से विरत अनगार परीपहों को मृत्युपर्यन्त जीवन-भर सहन करे ।
जो प्रमत्त हैं, उन्हें निर्ग्रन्थ धर्म से बाहर समझ (देख) । अतएव अप्रमत्त होकर पख्रिजन-विचरण कर । (और) इस (परिग्रहविरतिरूप) मुनिधर्म का सम्यक् परिपालन कर । ऐसा मैं कहता हूँ।
| अध्ययन-५ उद्देशक-३ [१६४] इस लोक में जितने भी अपरिग्रही साधक हैं, वे इन धर्मोपकरण आदि में