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________________ आचार- १/४/४/१५० ३९ अध्ययन- ४ उद्देसक - ४ [१५० ] मुनि पूर्व-संयोग का त्याग कर उपशम करके ( शरीर का) आपीड़न करे, फिर प्रपीड़न करे और तब निष्पीड़न करे । मुनि सदा अविमना, प्रसन्नमना, स्वारत, समित, सहित, और वीर होकर (इन्द्रिय और मन का ) संयमन करे । अप्रमत होकर जीवन पर्यन्त संयम साधन करने वाले, अनिवृत्तगामी मुनियों का मार्ग अत्यन्त दुरनुचर होता है । (संयम और मोक्षमार्ग में विघ्न करने वाले शरीर का) मांस और रक्त (विकट तपश्चरण द्वारा) कम कर । यह (उक्त विकट तपस्वी) पुरुष संयमी, रागद्वेष का विजेता होने से पराक्रमी और दूसरों के लिए अनुकरणीय आदर्श तथा मुक्तिगमन के योग्य होता है । वह ब्रह्मचर्य में ( स्थित ) रहकर शरीर या कर्मशरीर को ( तपश्चरण आदि से ) धुन डालता है । [१५१] नेत्र आदि इन्द्रियों पर नियन्त्रण का अभ्यास करते हुए भी जो पुनः कर्मके स्त्रोत में गृद्ध हो जाता है तथा जो जन्म-जन्मों के कर्मबन्धनों को तोड़ नहीं पाता, संयोगों को छोड़ नहीं सकता, मोह- अन्धकार में निमग्न वह बाल - अज्ञानी मानव अपने आत्महित एवं मोक्षोपाय को नहीं जान पाता । ऐसे साधक को आज्ञा का लाभ नहीं प्राप्त होता । ऐसा मैं कहता हूँ । - [१५२] जिसके (अन्तःकरण में भोगासक्ति का ) पूर्व संस्कार नहीं है और पश्चात् का संकल्प भी नहीं है, बीच में उसके ( मन में विकल्प) कहाँ से होगा ? ( जिसकी भोगाकांक्षाएँ शान्त हो गई हैं ।) वही वास्तव में प्रज्ञानवान् है, प्रबुद्ध है और आरम्भ से विरत है । यह सम्यक् है, ऐसा तुम देखो - सोचो । (भोगासक्ति के कारण ) पुरुष बन्ध, वध, घोर परिताप और दारुण दुःख पाता है । ( अतः) पापकर्मों के बाह्य एवं अन्तरंग स्त्रोतों को बन्द करके इस संसार में मरणधर्मा प्राणियों के बीच तुम निष्कर्मदर्शी बन जाओ । कर्म अपना फल अवश्य देते हैं, यह देखकर ज्ञानी पुरुष उनसे अवश्य ही निवृत्त हो जाता है । [१५३] हे आर्यो ! जो साधक वीर हैं, समित हैं, सहित हैं, संयत हैं, सतत शुभाशुभदर्शी हैं, (पापकर्मों से) स्वतः उपरत हैं, लोक जैसा है उसे वैसा ही देखते हैं, सभी दिशाओं में भली प्रकार सत्य में स्थित हो चुके हैं, उन के सम्यग् ज्ञान का हम कथन करेंगे, उसका उपदेश करेंगे । - (ऐसे) सत्यद्रष्टा वीर के कोई उपाधि होती है ? नहीं होती । ऐसा मैं कहता हूँ । अध्ययन-४ का मुनिदीपरत्नसागर कृत हिन्दी अनुवाद पूर्ण अध्ययन-५ लोकसार उद्देशक - 9 [१५४] इस लोक में जितने भी कोई मनुष्य सप्रयोजन या निष्प्रयोजन जीवों की हिंसा करते हैं, वे उन्हीं जीवों में विविध रूप में उत्पन्न होते हैं । उनके लिए शब्दादि काम
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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