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सूत्रकृत-२/७/-/८०४
के योग्य हैं ?” निर्ग्रन्थ- 'हाँ, वे प्रव्रजित यावत् महाव्रतारोपण करने योग्य हैं ।'
श्री गौतमस्वामी - "क्या दीक्षा ग्रहण किये हुए तथाप्रकार के व्यक्तियों के साथ साधु को सम्भोगिक (परस्पर वन्दना, आसन प्रदान, अभ्युत्थान, आहारादि का आदान-प्रदान इत्यादि) व्यवहार करने योग्य हैं ?' निर्ग्रन्थ- 'हाँ, करने योग्य है ।' श्री गौतमस्वामी - ' वे दीक्षापालन करते हुए चार, पांच, छह या दस वर्ष तक थोड़े या अधिक देशों में भ्रमण करके क्या पुनः गृहवास में जा सकते हैं ?' निर्ग्रन्थ- 'हाँ, वे जा सकते हैं । श्री गौतमस्वामी - साधुत्व छोड़ कर गृहस्थपर्याय में आए हुए वैसे व्यक्तियों के साथ साधु को सांभगिक व्यवहार रखना योग्य है ?' निर्ग्रन्थ- "नहीं, अब उनके साथ वैसा व्यवहार नहीं रखा जा सकता ।”
श्री गौतमस्वामी - आयुष्मान् निर्ग्रन्थो ! वह जीव तो वही है, जिसके साथ दीक्षाग्रहण करने से पूर्व साधु को सांभोगिक व्यवहार करना उचित नहीं होता, और यह वही जीव है, जिसके साथ दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् साधु को सांभोगिक व्यवहार करना उचित होता है, तथा यह वही जीव है, जिसने अब साधुत्व का पालन करना छोड़ दिया है, तब उसके साथ साधु को सांभोगिक व्यवहार रखना योग्य नहीं है । यह जीव पहले गृहस्थ था, तब अश्रमण था, बाद में श्रमण हो गया, और इस समय पुनः अश्रमण है । अश्रमण के साथ श्रमणनिर्ग्रन्थों भोगिक व्यवहार रखना कल्पनीय नहीं होता । निर्ग्रन्थो ! इसी तरह इसे ( यथार्थ ) जानो, और इसी तरह इसे जानना चाहिए ।
भगवान् श्री गौतमस्वामी ने कहा - " कई श्रमणोपासक बड़े शान्त होते हैं । वे साधु के सान्निध्य में आ कर सर्वप्रथम यह कहते हैं-हम मुण्डित हो कर गृहवास का त्याग कर अनगारधर्म में प्रव्रजित होने में समर्थ नहीं हैं । हम तो चतुर्दशी, अष्टमी और पूर्णमासी के दिन परिपूर्ण पौषव्रत का सम्यक अनुपालन करेंगे तथा हम स्थूल प्राणातिपात, स्थूल मृषावाद, स्थूल अदत्तादान, स्थूलमैथुन, एवं स्थूल परिग्रह का प्रत्याख्यान करेंगे । हम अपनी इच्छा का परिमाण करेंगे । हम ये प्रत्याख्यान दो करण एवं तीन योग से करेंगे । (हम जब पौषधव्रत में होंगे, तब अपने कौटुम्बिकजनों से पहले से कहेंगे-) 'मेरे लिए कुछ भी ( आरम्भ ) न करना और न ही कराना" तथा उस पौषध में अनुमति का भी प्रत्याख्यान करेंगे ।
पौषधस्थित वे श्रमणोपासक बिना खाए- पीए तथा बिना स्नान किये एवं ब्रह्मचर्य - पौषध या व्यापारत्याग - पौषध कर के दर्भ के संस्तारक पर स्थित ) ( ऐसी स्थिति में सम्यक् प्रकार से पौषध का पालन करते हुए) यदि मृत्यु को प्राप्त हो जाएँ तो उनके मरण के विषय में क्या कहना होगा ? यही कहना होगा कि वे अच्छी तरह से कालधर्म को प्राप्त हुए । देवलोक में उत्पत्ति होने से वे त्रस ही होते हैं । वे ( प्राणधारण करने के कारण) प्राणी भी कहलाते हैं, वे (सनामकर्म का उदय होने से ) त्रस भी कहलाते हैं, (एक लाख योजन तक के शरीर की विक्रिया कर सकने के कारण) वे महाकाय भी होते हैं तथा (तैतीस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति होने से ) वे चिरस्थितिक भी होते हैं । वे प्राणी संख्या में बहुत अधिक हैं, जिनके विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है । वे प्राणी थोड़े हैं, जिनके विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान नहीं होता । इस प्रकार वह श्रमणोपासक महान् कायिक हिंसा से निवृत्त है । फिर भी आप उसके प्रत्याख्यान को निर्विषय कहते हैं । अतः आपका यह दर्शन न्यायसंगत नहीं है ।