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________________ सूत्रकृत-२/३/-/६८९ २२९ तीर्थंकर भगवान् ने कहा है । जैसे कि-गोह, नेवला, सेह, सरट, सल्लक, सरथ, खोर, गृहकोकिला, विषम्भरा, मूषक, मंगुस, पदलातिक, विडालिक, जोध और चातुष्पद आदि भुजपरिसर्प हैं । उन जीवों की उत्पत्ति भी अपने-अपने बीज और अवकाश के अनुसार होती है । उरःपस्सिर्पजीवों के समान ये जीव भी स्त्री पुरुष-संयोग से उत्पन्न होते हैं । शेष सब बातें पूर्ववत् । ये जीव भी अपने किये हुए आहार को पचाकर अपने शरीर में परिणत कर लेते हैं । गोह से लेकर चातुष्पद तक उन अनेक जाति वाले भुजपरिसर्प स्थलचर तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों के नाना वर्णादि को ले कर अनेक शरीर होते हैं, ऐसा कहा है । इसके पश्चात् श्रीतीर्थंकरदेव ने आकाशचारी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के विषय में कहा है । जैसे कि-चर्मपक्षी, लोमपक्षी, समुद्गपक्षी तथा विततपक्षी आदि खेचर तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय होते हैं । उन प्राणियों की उत्पत्ति भी उत्पत्ति के योग्य बीज और अवकाश के अनुसार होती है और स्त्री-पुरुष के संयोग से इनकी उत्पत्ति होती है । शेष बातें उरःपस्सिर्प जानना । वे प्राणी गर्भ से निकल कर बाल्यावस्था प्राप्त होने पर माता के शरीर के स्नेह का आहार करते हैं। फिर क्रमशः बड़े होकर वनस्पतिकाय तथा त्रस-स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं । वे जीव पृथ्वी आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं और उन्हें पचाकर अपने शरीर रूप में परिणत कर लेते हैं । इन आकाशचारी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जीवों के और भी अनेक प्रकार के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, आकार एवं अवयवरचना वाले शरीर होते हैं, ऐसा कहा है । [६९०] इसके पश्चात् श्री तीर्थंकरदेव ने निरूपण किया है कि इस जगत् में कई प्राणी नाना प्रकार की योनियों में उत्पन्न होते हैं । वे अनेक प्रकार की योनियों में स्थित रहते हैं, संवर्द्धन पाते हैं । वे जीव अपने पूर्वकृत कर्मानुसार उन कर्मों के ही प्रभाव से विविध योनियों में आकर उत्पन्न होते हैं । वे प्राणी अनेक प्रकार के त्रस स्थावर-पुद्गलों के सचित्त या अचित्त शरीरों में उनके आश्रित होकर रहते हैं । वे जीव अनेकविध त्रस-स्थावर प्राणियों के स्नेह का आहार करते हैं । वे जीव पृथ्वी से लेकर वनस्पति तक के शरीरों का भी आहार करते हैं । उन त्रस-स्थावर योनियों से उत्पन्न, और उन्ही के आश्रित रहने वाले प्राणियों के विभिन्न वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले, विविध संस्थान वाले और भी अनेक प्रकार के शरीर होते हैं, ऐसा कहा है। - इसी प्रकार विष्ठा और मूत्र आदि में कुरूप विकलेन्द्रिय प्राणी उत्पन्न होते हैं और गाय भैंस आदि के शरीर में चर्मकीट उत्पन्न होते हैं । - इसके पश्चात् श्रीतीर्थंकरदेव ने अन्यान्य प्राणियों के आहारादि का प्रतिपादन किया है । इस जगत् में नानाविध योनियों में उत्पन्न होकर कर्म से प्रेरित वायुयोनिक जीव अप्काय में आते हैं । वे प्राणी वहाँ अप्काय में आ कर अनेक प्रकार के त्रस और स्थावर प्राणियों के सचित्त तथा अचित्त शरीर में अप्कायरूप में उत्पन्न होते हैं । वह अप्काय वायु से बना हुआ या वायु से संग्रह किया हुआ अथवा वायु के द्वारा धारण किया हुआ होता है । अतः वह ऊपर का वायु हो तो ऊपर, नीचे का वायु हो तो नीचे और तिरछा वायु हो तो तिरछा जाता है । उस अप्काय के कुछ नाम ये हैं-ओस, हिम, मिहिका, ओला, हरतनु और शुद्ध जल । वे जीव अनेक प्रकार के त्रस और स्थावर प्राणियों के स्नेह का आहार करते हैं । वे जीव पृथ्वी आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं । तथा पूर्वभुक्त त्रस स्थावरीय आहार को
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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