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________________ २०८ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद होते हुए भी स्वयं को अन्यथा मानते हैं; वे दूसरी बात पूछने पर दूसरी बात का व्याख्यान करने लगते हैं, दूसरी बात कहने के स्थान पर दूसरी बात का वर्णन करने पर उतर जाते हैं । (उदाहरणार्थ-) जैसे किसी पुरुष के अन्तर में शल्य गड़ गया हो, वह उस शल्य को स्वयं नही निकालता न किसी दूसरे से निकलवाता है, और न उस शल्य को नष्ट करवाता है, प्रत्युत निष्प्रयोजन ही उसे छिपाता है, तथा उसकी वेदना से अंदर ही अंदर पीड़ित होता हुआ उसे सहता रहता है, इसी प्रकार मायी व्यक्ति भी माया करके उस मायाशल्य को निन्दा के भय से स्वयं आलोचना नहीं करता, न उसका प्रतिक्रमण करता है, न निन्दा करता है, न गर्दा करता है, न वह उस को प्रायश्चित्त आदि उपायों से तोड़ता है, और न उसकी शुद्धि करता है, उसे पुनः न करने के लिए भी उद्यत नहीं होता, तथा उस पापकर्म के अनुरूप यथायोग्य तपश्चरण के रूप में प्रायश्चित्त भी स्वीकार नहीं करता । इस प्रकार मायी इस लोक में प्रख्यात हो जाता है, अविश्वसनीय हो जाता है; परलोक में भी पुनः पुनः जन्म-मरण करता रहता है । वह दूसरे की निन्दा करता है, दूसरे से धृणा करता है, अपनी प्रशंसा करता है, निश्चिन्त हो कर बुरे कार्यों में प्रवृत्त होता है, असत् कार्यों से निवृत्त नहीं होता, प्राणियों को दण्ड दे कर भी उसे स्वीकारता नहीं, छिपाता है। ऐसा मायावी शुभ लेश्याओं को अंगीकार भी नहीं करता । ऐसा मायी पुरुष पूर्वोक्त प्रकार की माया युक्त क्रियाओं के कारण पाप कर्म का बन्ध करता है । [६६०] इसके पश्चात् बारहवाँ क्रियास्थान लोभप्रत्ययिक है । वह इस प्रकार है-ये जो वन में निवास करने वाले हैं, जो कुटी बना कर रहते हैं, जो ग्राम के निकट डेरा डाल कर रहते हैं, कई एकान्त में निवास करते हैं, अथवा कोई रहस्यमयी गुप्त क्रिया करते हैं । ये आरण्यक आदि न तो सर्वथा संयत हैं और न ही विरत हैं, वे समस्त प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों की हिंसा से स्वयं विरत नहीं हैं । वे स्वयं कुछ सत्य और कुछ मिथ्या वाक्यों का प्रयोग करते हैं जैसे कि मैं मारे जाने योग्य नहीं हूं, अन्य लोग मारे जाने योग्य हैं, मैं आज्ञा देने योग्य नहीं हूं, किन्तु दूसरे आज्ञा देने योग्य हैं, मैं परिग्रहण या निग्रह करने योग्य, नहीं हूं, दूसरे परिग्रह या निग्रह करने योग्य हैं, मैं संताप देने योग्य नहीं हूं, किन्तु अन्य जीव सन्ताप देने योग्य हैं, मैं उद्विग्न करने या जीवरहित करने योग्य नहीं हूं दूसरे प्राणी उद्विग्न, भयभीत या जीवरहित करने योग्य हैं । इस प्रकार परमार्थ से अनभिज्ञ वे अन्यतीर्थिक स्त्रियों और शब्दादि कामभोगों में आसक्त, गृद्ध सतत विषयभोगों में ग्रस्त, गर्हित एवं लीन रहते हैं । वे चार, पाँच, छह या दस वर्ष तक थोड़े या अधिक काम-भोगों का उपभोग करके मृत्यु के समय मृत्यु पा कर असुरलोक में किल्विषी असुर के रूप में उत्पन्न होते हैं । उस आसुरी योनि से विमुक्त होने पर बकरे की तरह मूक, जन्मान्ध एवं जन्म से मूक होते हैं । इस प्रकार विषय-लोलुपता की क्रिया के कारण लोभप्रत्ययिक पाप कर्म का बन्ध होता है । इन पूर्वोक्त बारह क्रियास्थानों को मुक्तिगमनयोग्य श्रमण या माहन को सम्यक् प्रकार से जान लेना चाहिए, और त्याग करना चाहिए । [६६१] पश्चात् तेरहवाँ क्रियास्थान ऐर्यापथिक हैं । इस जगत् में या आहेतप्रवचन में जो व्यक्ति अपने आत्मार्थ के लिए उपस्थित एवं समस्त परभावों या पापों से संवृत है तथा घरबार आदि छोड़ कर अनगार हो गया है, जो ईर्यासमिति से युक्त है, जो भाषासमिति से युक्त
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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