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सूत्रकृत- २/१/-/६४१
को पृथक् करके दिखा दे कि यह आत्मा है, और यह शरीर है ।'
(५) जैसे कोई पुरुष दही से नवनीत को अलग निकाल कर दिखला देता है कि " आयुष्मन् ! यह नवनीत है और यह दही है ।" इस प्रकार कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जो शरीर से आत्मा को पृथक् करके दिखला दे कि यह आत्मा है और यह शरीर है ।'
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(६) जैसे कोई पुरुष तिलों से तेल निकाल कर प्रत्यक्ष दिखला देता है कि “आयुष्मन् ! यह तेल है और यह तिलों की खली है, " वैसे कोई पुरुष ऐसा नहीं है, जो शरीर को आत्मा से पृथक् करके दिखा सके कि यह आत्मा है, और यह उससे भिन्न शरीर है ।'
(७) जैसे कि कोई पुरुष ईख से उसका रस निकाल कर दिखा देता है कि “आयुष्मन् ! यह ईख का रस है और यह उसका छिलका है;” इसी प्रकार ऐसा कोई पुरुष नहीं है जो शरीर और आत्मा को अलग-अलग करके दिखला दे कि यह आत्मा है और यह शरीर है ।'
(८) जैसे कि कोई पुरुष अरणि की लकड़ी से आग निकाल कर प्रत्यक्ष दिखला देता है कि यह अरिण है और यह आग है," इसी प्रकार कोई ऐसा नहीं है जो शरीर और आत्मा को पृथक् करके दिखला दे कि यह आत्मा है और यह शरीर है ।' इसलिए आत्मा शरीर से पृथक् उपलब्ध नहीं होती, यही बात युक्तियुक्त है । इस प्रकार जो पृथगात्मवादी बारबार प्रतिपादन करते हैं, कि आत्मा अलग है, शरीर अलग है, पूर्वोक्त कारणों से उनका कथन मिथ्या है ।
इस प्रकार तज्जीवतच्छरीरवादी स्वयं जीवों का हनन करते हैं, तथा इन जीवों को मारो, यह पृथ्वी खोद डालो, यह वनस्पति काटो, इसे जला दो, इसे पकाओ, इन्हें लूट लो या इनका हरण कर लो, इन्हें काट दो या नष्ट कर दो, बिना सोचे विचारे सहसा कर डालो, इन्हें पीडित करो इत्यादि । इतना (शरीरमात्र) ही जीव है, परलोक नहीं है ।" वे शरीरात्मवादी नहीं मानते कि-सत्क्रिया या असत्क्रिया, सुकृत, या दुष्कृत, कल्याण या पाप, भला या बुरा, सिद्धि या असिद्धि, नरक या स्वर्ग, आदि । इस प्रकार वे शरीरात्मवादी अनेक प्रकार के कर्मसमारम्भ करके विविध प्रकार के काम-भोगों का सेवन करते हैं ।
इस प्रकार शरीर से भिन्न आत्मा न मानने की धृष्टता करने वाले कोई प्रव्रज्या धारण करके 'मेरा ही धर्म सत्य है,' ऐसी प्ररूपणा करते हैं । इस शरीरात्मवाद में श्रद्धा, प्रतीति, रुचि रखते हुए कोई राजा आदि उस शरीरात्मवादी से कहते हैं- 'हे भ्रमण या ब्राह्मण ! आपने हमें यह तज्जीव- तच्छरीरवाद रूप उत्तम धर्म बता कर बहुत ही अच्छा किया, है आयुष्मन् ! अतः हम आपकी पूजा करते हैं, हम अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य अथवा, वस्त्र, पात्र, कम्बल अथवा पाद- प्रोञ्छन आदि के द्वारा आपका सत्कार-सम्मान करते हैं ।' यों कहते हुए कई राजा आदि की पूजा में प्रवृत्त होते हैं, और उन स्वमतस्वीकृत राजा आदि को अपनी पूजा-प्रतिष्ठा के लिए अपने मत - सिद्धान्त में दृढ़ कर देते हैं |
इन शरीरात्मवादियों ने पहले तो वह प्रतिज्ञा की होती है कि 'हम अनगार, अकिंचन, अपुत्र, अपशु, परदत्तभोजी, भिक्षु एवं श्रमण बनेंगे, अब हम पापकर्म नहीं करेगें; ऐसी प्रतिज्ञा के साथ वे स्वयं दीक्षा ग्रहण करके भी पाप कर्मों से विरत नहीं होते, वे स्वयं परिग्रह को ग्रहण करते हैं, दूसरे से ग्रहण कराते हैं और परिग्रह ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करते हैं, इसी प्रकार वे स्त्री तथा अन्य कामभोगों में आसक्त, गृद्ध, इच्छा और लालसा से युक्त,