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________________ सूत्रकृत- २/१/-/६४० १९३ पुष्करिणी का तट बताया है । और आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी आत्मा में निश्चित करके धर्मकथा को उस भिक्षु का वह शब्द कहा है । आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपने मन में स्थिर करके निर्वाण को श्रेष्ठ पुण्डरीक का पुष्करिणी से उठ कर बाहर आना कहा है । इन पुष्करिणी आदि को इन लोक आदि के दृष्टान्त के रूप में प्रस्तुत किया है । [६४१] इस मनुष्य लोक में पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशाओं में उत्पन्न कई प्रकार के मनुष्य होते हैं, जैसे कि उन मनुष्यों में कई आर्य होते हैं अथवा कई अनार्य होते हैं, कई उच्चगोत्रीय होते हैं, कई नीचगोत्रीय । उनमें से कोई भीमकाय होते हैं, कई ठिगने कद के होते हैं । कोई सुन्दर वर्ण वाले होते हैं, तो कोई बुरे वर्ण वाले । कोई सुरूप होते हैं तो कोई कुरूप होते हैं । उन मनुष्यों में कोई एक राजा होता है । वह महान् हिमवान् मलयाचल, मन्दराचल तथा महेन्द्र पर्वत के समान सामर्थ्यवान् होता है । वह अत्यन्त विशुद्ध राजकुल के वंश में जन्मा हुआ होता है । उसके अंग राजलक्षणों से सुशोभित होते हैं । उसकी पूजा-प्रतिष्ठा अनेक जनों द्वारा बहुमानपूर्वक की जाती है, वह गुणों से समृद्ध होता है, वह क्षत्रिय होता है । सदा प्रसन्न रहता है । राज्याभिषेक किया हुआ होता है । वह अपने मातापिता का सुपुत्र होता है । उसे दया प्रिय होती है । वह सीमंकर तथा सीमंधर होता है । वह क्षेमंकर तथा क्षेमन्धर होता है । वह मनुष्यों में इन्द्र, जनपद का पिता, और जनपद का पुरोहित होता है । वह अपने राज्य या राष्ट्र की सुख-शान्ति के लिए सेतुकर और केतुकर होता है । वह मनुष्यों में श्रेष्ठ, पुरुषों वरिष्ठ, पुरुषों में सिंहसम, पुरुषों में आसीविष सर्प समान, पुरुषों में श्रेष्ठ पुण्डरीकतुल्य, पुरुषों में श्रेष्ठ मत्तगन्धहस्ती के समान होता है । वह अत्यन्त धनाढ्य, दीप्तिमान् एवं प्रसिद्ध पुरुष होता है । उसके पास विशाल विपुल भवन, शय्या, आसन, यान तथा वाहन की प्रचुरता रहती है । उसके कोष प्रचुर धन, सोना, चाँदी आदि से भरे रहते हैं । उसके यहां प्रचुर द्रव्य की आय होती है, और व्यय भी बहुत होता है । उसके यहाँ से बहुत से लोगों को पर्याप्त मात्रा में भोजन - पानी दिया जाता है । उसके यहां बहुत-से दासी - दास, गाय, बैल, भैंस, बकरी आदि पशु रहते हैं । उसके धान्य का कोठार अन्न से, धन के कोश प्रचुर द्रव्य से और आयुधागार विविध शस्त्रास्त्रों से भरा रहता है । वह शक्तिशाली होता है । वह अपने शत्रुओं दुर्बल बनाए रखता है । उसके राज्य में कंटक - चोरों, व्यभिचारियों, लुटेरों तथा उपद्रवियों एवं दुष्टों का नाश कर दिया जाता हैं, उनका मानमर्दन कर दिया जाता है, उन्हें कुचल दिया जाता है, उनके पैर उखाड़ दिये जाते हैं, जिससे उसका राज्य निष्कण्टक हो जाता है । उसके राज्य पर आक्रमण करने वाले शत्रुओं को नष्ट कर दिया जाता है, उन्हें खदेड़ दिया जाता है, उनका मानमर्दन कर दिया जाता है, अथवा उनके पैर उखाड़ दिये जाते हैं, उन शत्रुओं को जीत लिया जाता है, उन्हें हरा दिया जाता है । उसका राज्य दर्भिक्ष और महामारी आदि के भय से विमुक्त होता है । यहां से ले कर “जिसमें स्वचक्र - परचक्र का भय शान्त हो गया है, ऐसे राज्य का प्रशासन - पालन करता हुआ वह राजा विचरण करता है," । उस राजा की परषिद् होती है । उसके सभासद - उग्र- उग्रपुत्र, भोग तथा भोगपुत्र इक्ष्वाकु तथा इक्ष्वाकुपुत्र, ज्ञात तथा ज्ञातपुत्र, कौरव, तथा कौरवपुत्र, सुभट तथा सुभट - पुत्र, ब्राह्मण तथा ब्राह्मणपुत्र, लिच्छवी तथा लिच्छवीपुत्र, प्रशास्तागण तथा प्रशास्तृपुत्र सेनापति 113
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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