________________
१९०
आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद पुष्करिणी देखने मात्र से चित्त को प्रसन्न करनेवाली, दर्शनीय, प्रशस्तरूपसम्पन्न, अद्वितीयरूपवाली है ।
उस पुष्करिणी के देश-देश में, तथा उन-उन प्रदेशों में यत्र-तत्र बहुत-से उत्तमोत्तम पौण्डरीक कहे गए हैं; जो क्रमशः ऊँचे उठे हुए हैं । वे पानी और कीचड़ से ऊपर उठे हुए हैं । अत्यन्त दीप्तिमान् हैं, रंग-रूप में अतीव सुन्दर हैं, सुगन्धित हैं, रसों से युक्त हैं, कोमल स्पर्शवाले हैं, चित्त को प्रसन्न करनेवाले, दर्शनीय, रूपसम्पन्न एवं सुन्दर हैं । उस पुष्करिणी के ठीक बीचोंबीच एक बहुत बड़ा तथा कमलों में श्रेष्ठ पौण्डरीक कमल स्थित बताया गया है । वह भी विलक्षण रचना से युक्त है, तथा कीचड़ और जल से ऊपर उठा हुआ है । वह अत्यन्त रुचिकर या दीप्तिमान् है, मनोज्ञ है, उत्तम सुगन्ध से युक्त है, विलक्षण स्सों से सम्पन्न है, कोमलस्पर्श युक्त है, अत्यन्त आह्लादक दर्शनीय, मनोहर और अतिसुन्दर है ।
उस सारी पुष्करिणी में जहाँ-तहाँ, इधर-उधर सभी देश-प्रदेशों में बहुत से उत्तमोत्तम पुण्डरीक भरे पड़े हैं । वे क्रमशः उतार-चढ़ाव से सुन्दर रचना से युक्त हैं, यावत् अद्वितीय सुन्दर हैं | उस समग्र पुष्करिणी के ठीक बीच में एक महान् उत्तमपुण्डरीक बताया गया है, जो क्रमशः उभरा हुआ यावत् सभी गुणों से सुशोभित बहुत मनोरम है ।
[६३४] अब कोई पुरुष पूर्वदिशा से उस पुष्करिणी के पास आकर उस पुष्करिणी के तीर पर खड़ा होकर उस महान् उत्तम एक पुण्डरीक को देखता है, जो क्रमशः सुन्दर रचना से युक्त यावत् बड़ा ही मनोहर है । इसके पश्चात् उस श्वेतकमल को देखकर उस पुरुष ने इस प्रकार कहा- "मैं पुरुष हूँ, खेदज्ञ हूँ, कुशल हूँ, पण्डित, व्यक्त, मेघावी तथा अबाल हूँ। मैं मार्गस्थ हूँ, मार्ग का ज्ञाता हूँ, मार्ग की गति एवं पराक्रम का विशेषज्ञ हूँ । मैं कमलों में श्रेष्ठ इस पुण्डरीक कमल को बाहर निकाल लूंगा । इस इच्छा से यहाँ आया हूँ-यह कह कर वह पुरुष उस पुष्करिणी में प्रवेश करता है । वह ज्यों-ज्यों उस पुष्करिणी में आगे बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों उसमें अधिकाधिक गहरा पानी और कीचड़ का उसे सामना करना पड़ता है । अतः वह व्यक्ति तीर से भी हट चुका और श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल के पास भी नहीं पहुंच पाया । वह न इस पार का रहा, न उस पार का । अपितु उस पुष्करिणी के बीच में ही गहरे कीचड़ में फंस कर अत्यन्त क्लेश पाता है । यह प्रथम पुरुष की कथा है ।
[६३५] अब दूसरे पुरुष का वृत्तान्त बताया जाता है । दूसरा पुरुष दक्षिण दिशा से उस पुष्करिणी के पास आ कर उस के दक्षिण किनारे पर ठहर कर उस श्रेष्ठ पुण्डरीक को देखता है, जो विशिष्ट क्रमबद्ध रचना से युक्त है, यावत् अत्यन्त सुन्दर है । वहाँ वह उस पुरुष को देखता है, जो किनारे से बहुत दूर हट चुका है, और उस प्रधान श्वेत-कमल तक पहुंच नहीं पाया है; जो न इधर का रहा है, न उधर का, बल्कि उस पुष्करिणी के बीच में ही कीचड़ में फंस गया है ।
तदनन्तर दक्षिण दिशा से आये हुए इस दूसरे पुरुष ने उस पहले पुरुष के विषय में कहा कि- “अहो ! यह पुरुष खेदज्ञ नहीं है, यह अकुशल है, पण्डित नहीं है, परिपक्व बुद्धिवाला तथा चतुर नहीं है, यह सभी बाल-अज्ञानी है । यह सत्पुरुषों के मार्ग में स्थित नहीं है, न ही यह व्यक्ति मार्गवेत्ता है । जिस मार्ग से चल कर उद्देश्य को प्राप्त करता है, उस मार्ग की गतिविधि तथा पराक्रम को यह नहीं जानता । जैसा कि इस व्यक्ति ने यह समझा था कि मैं बड़ा खेदज्ञ या क्षेत्रज्ञ हूँ, कुशल हूँ, यावत् पूर्वोक्त विशेषताओं से युक्त हूँ,