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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
रोग, आतंक, उपद्रव आदि मिटाने के लिए ।
[१२] लोक में (उक्त हेतुओ से होने वाले) ये सब कर्मसमारंभ के हेतु जानने योग्य और त्यागने योग्य होते हैं ।
[१३] लोक में ये जो कर्मसमारंभ के हेतु हैं, इन्हें जो जान लेता है वही परिज्ञातकर्मा मुनि होता है । - ऐसा मैं कहता हूँ ।
अध्ययन-१ उद्देसक-२ [१४] जो मनुष्य आर्त है, वह ज्ञान दर्शन से परिजीर्ण रहता है । क्योंकि वह अज्ञानी जो है । अज्ञानी मनुष्य इस लोक में व्यथा-पीडा का अनुभव करता है | काम, भोग व सुख के लिए आतुर बने प्राणी स्थान-स्थान पर पृथ्वीकाय आदि प्राणियों को परिताप देते रहते हैं । यह तू देख ! समझ !
[१५] पृथ्वीकायिक प्राणी पृथक्-पृथक् शरीर में आश्रित रहते हैं | तू देख ! आत्मसाधक, लज्जमान है - (हिंसा से स्वयं को संकोच करता हुआ संयममय जीवन जीता है ।) कुछ साधु वेषधारी 'हम गृहत्यागी हैं। ऐसा कथन करते हुए भी वे नाना प्रकार के शस्त्रो से पृथ्वीसम्बन्धी हिंसा-क्रिया में लगकर पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करते हैं तथा पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा के साथ तदाश्रित अन्य अनेक प्रकार के जीवों की भी हिंसा करते हैं ।
[१६] इस विषय में भगवान महावीर स्वामी ने परिज्ञा/विवेक का उपदेश किया है । कोई व्यक्ति इस जीवन के लिए, प्रशंसा-सम्मान और पूजा के लिए, जन्म-मरण और मुक्ति के लिए, दुःख का प्रतीकार करने के लिए, स्वयं पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करता हैं, दूसरों से हिंसा करवाता है, तथा हिंसा करने वालों का अनुमोदन करता है ।
[१७] वह (हिंसावृत्ति) उसके अहित के लिए होती है । उसकी अबोधि के लिए कारणभूत होती है । वह साधक हिंसा के उक्त दुष्परिणामों को अच्छी तरह समझता हुआ, संयम-साधना में तत्पर हो जाता है । कुछ मनुष्यों को भगवान् के या अनगार मुनियों के समीप धर्म सुनकर यह ज्ञात होता है कि - ‘यह जीव-हिंसा ग्रन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है और यही नरक है ।'
(फिर भी) जो मनुष्य सुख आदि के लिए जीवहिंसा में आसक्त होता हैं, वह नाना प्रकार के शस्त्रों से पृथ्वी-सम्बन्धी हिंसा-क्रिया में संलग्न होकर पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करता है और तब वह न केवल पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करता है, अपितु अन्य नानाप्रकार के जीवों की भी हिंसा करता है ।
मैं कहता हूँ - जैसे कोई किसी के पैर में, टखने पर, घुटने, उरु, कटि, नाभि, उदर, पसली पर, पीठ, छाती, हृदय, स्तन, कंधे, भुजा, हाथ, अंगुली, नख, ग्रीवा, ठुड्डी, होठ, दाँत, जीभ, तालु, गले, कपोल, कान, नाक, आँख, भौंह, ललाट, और शिर का भेदन छेदन करे, (तब उसे जैसी पीडा होती है, वैसी ही पीडा पृथ्वीकायिक जीवों को होती है ।)
जैसे कोई किसी को गहरी चोट मारकर, मूर्छिच कर दे, या प्राण-वियोजन ही कर दे, उसे जैसी कष्टानुभूति होती है, वैसी ही पृथ्वीकायिक जीवों की वेदना समझना चाहिए ।
जो यहाँ (लोक में) पृथ्वीकायिक जीवों पर शस्त्र का समारंभ करता है, वह वास्तव