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________________ सूत्रकृत - १/१४/-/५९८ १८७ [५९८] प्राज्ञ न अर्थ छिपाये, न अपसिद्धान्त का प्रतिपादन करे, न मान करे, न आत्म प्रशंसा करे, न परिहार करे और न ही आशीर्वचन कहे । [५९९ ] जीव- हिंसा की आशंका से जुगुप्सित मुनि मंत्र पद से गौत्र का निर्वाह न करे । वह मनुज प्रजा से कुछ भी इच्छा न करे, असाधु धर्मों का संवाद न करे । [६००] निर्मल और अकषायी मुनि पापधर्मियों का परिहास न करे । अकिंचन रहे । सत्य कठोर होता है, इसे जाने । आत्महीनता एवं आत्म प्रशंसा न करे । [ ६०१ ] आशुप्रज्ञ भिक्षु अशंकित भाव से विभज्यवाद / स्याद्वाद का प्ररूपण करे । मुनि धर्म - समुत्थित पुरुषों के साथ मिश्र भाषा का प्रयोग करे । [६०२] कोई तथ्य को जानता है कोई नहीं । साधु अकर्कश / विनम्र भाव से उपदेश दे । कहीं भी भाषा सम्बन्धित हिंसा न करे । छोटी-सी बात को लम्बी न खींचे । [६०३] प्रतिपूर्णभाषी, अर्थदर्शी भिक्षु सम्यक् श्रवण कर बोले । आज्ञा- सिद्ध वचन का प्रयोग करे और पाप-विवेक का संधान करे । [६०४] यथोक्त का शिक्षण प्राप्त करे, यतना करे, अधिक समय तक न बोले, ऐसा भिक्षु ही उस समाधि को कहने की विधि जान सकता है । [६०५ ] तत्त्वज्ञ भिक्षु प्रच्छन्नभाषी न बने, सूत्रार्थ को अन्य रूप न दे, शास्ता की भक्ति, परम्परागत सिद्धान्त और श्रुत / शास्त्र का सम्यक् प्रतिपादन करे | [६०६] वह शुद्ध सूत्रज्ञ और तत्त्वज्ञ है जो धर्म का सम्यक् ज्ञाता है । जिसका वचन लोकमान्य है, जो कुशल और व्यक्त है वही समाधि का प्रतिपादन करने में समर्थ है । - ऐसा मैं कहता हूँ । अध्ययन - १४ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् अनुवाद पूर्ण अध्ययन- १५ आदानीय [६०७ ] दर्शनावरण को समाप्त करने वाला एवं अतीत वर्तमान और भविष्य का ज्ञाता तत्त्वानुरूप जानता है । [६०८] विचिकित्सा को समाप्त करने वाला अनुपम तत्त्व का ज्ञाता है । अनुपम तत्त्व का प्रतिपादक हर स्थान पर नहीं होता । [६०९] जो स्वाख्यात है वही सत्य और भाषित है । सत्य-सम्पन्न व्यक्ति के लिए जीवों से सदैव मैत्री ही उचित है । [६१०] जीवों से वैर विरोध न करे, यही वृषीमत / सुसंयमी का धर्म है । सुसंयमी को जगत् परिज्ञात है, यह जीवित भावना है । [ ६११] भावना-योग से विशुद्ध आत्मज्ञ पुरुष की स्थिति जल में नौका के समान है । वह तट प्राप्त नौका की तरह सर्व दुःखों से मुक्त हो जाता है । [६१२] लोक में पाप का ज्ञाता मेघावी पुरुष इससे मुक्त हो जाता है । जो नवीन कर्म का अकर्ता है उसके पाप कर्म टूट जाते हैं । [ ६१३] जो नवीनकर्म का अकर्ता है, विज्ञाता है वह कर्म बन्धन नहीं करता है ।
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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