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सूत्रकृत - १/१३/-/ ५६६
एवं परदत्त भोजी होकर भी गोत्र - मद करता है । वह मानबद्ध है ।
[५६७ ] जाति और कुल उसके रक्षक नहीं है । केवल सुचीर्ण विद्याचरण ही उसका रक्षक है । जो अभिनिष्क्रमण कर के भी गृहस्थ- कर्म का सेवन करता है वह कर्म विमोचन में असमर्थ होता है ।
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[५६८] अकिंचन और रूक्ष जीवी भिक्षु यदि प्रशंसाकामी है, तो वह अहंकारी है । ऐसा अबुद्ध आजीवक पुनः पुनः विपर्यास प्राप्त करता है ।
[५६९] जो सुसाधुवादी, भाषावान्, प्रतिभावान् विशारद, प्रखर-प्राज्ञ और श्रुतभावितात्मा है वह दूसरों को अपनी प्रज्ञा पराभूत कर देता है ।
[ ५७० ] पर ऐसा व्यक्ति समाधि प्राप्त नहीं है । जो भिक्षु अपनी प्रज्ञा का उत्कर्ष दिखलाता है अथवा लाभ के मद से अवलिप्त है वह बालप्रज्ञ दूसरों की निन्दा करता है । [ ५७१] वह भिक्षु पंडित और महात्मा है जो प्रज्ञा-मद, तपो-मद, गौत्र-मद और चतुर्थ आजीविका - मद मन से निकाल देता है ।
[५७२] सुधीरधर्मी धीर इन मदों को छोड़कर पुनः सेवन नहीं करते हैं । सभी गोत्रों से दूर वे महर्षि उच्च और अगोत्र गति की ओर व्रजन करते हैं ।
[ ५७३] जो भिक्षु मृतार्च तथा दष्टधर्मा है । वह ग्राम व नगर में प्रवेश कर एषणा और अनेषणा को जाने और अन्नपान के प्रति अनासक्त रहे ।
[५७४] भिक्षु अरति और रति का त्याग करके संघवासी अथवा एकचारी बने । जो बात मौन / मुनित्व से सर्वथा अविरुद्ध हो उसी का निरूपण करे । गतिआगति एकाकी जीव की होती है ।
[५७५ ] स्वयं जानकर अथवा सुनकर प्रजा का हितकर धर्म का भाषण करे । जो सनिदान प्रयोग निन्द्य है, उनका सुधीरधर्मी सेवन न करे ।
[ ५७६ ] किसी के भाव को तर्क से न जानने वाला अश्रद्धालु क्षुद्रता को प्राप्त करता है । अतः साधक अनुमान से दुसरों के अभिप्राय को जानकर आयु का मरणातिचार और व्याघात करे ।
[५७७ ] धीर कर्म और छन्द का विवेचन कर उसके प्रति आत्म-भाव का सर्वथा विनयन करे । भयावह त्रस - स्थावर रूपों से विद्या- ग्रहण कर पुरुष नष्ट होते हैं ।
[५७८] निर्मल तथा अकषायी भिक्षु न पूजा व प्रशंसा की कामना करे और न ही किसी का प्रिय अप्रिय करे । वह सब अनर्थो को छोड़ दे ।
[ ५७९] यथातथ्य का संप्रेक्षक सभी प्राणियों की हिंसा का परित्याग करे, जीवनमरण का अनाकांक्षी बने और वलय से मुक्त हो कर परिव्रजन करे । ऐसा मैं कहता हूँ । अध्ययन - १३ कामुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
अध्ययन- १४ ग्रन्थ
[५८० ] ग्रन्थ को छोड़कर एवं शिक्षित होते हुए प्रव्रजित होकर ब्रह्मचर्य - वास करे, अवपातकारी विनय का प्रशिक्षण करे । जो निष्णात है वह प्रमाद न करे ।