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सूत्रकृत - १/३/४/२३०
आर्य मार्ग ही परम [मोक्षकार ] है, समाधिकर है ।
[२३१] इस अप - सिद्धान्त को मानते हुए तुम अल्प के लिए अधिक का लुम्पन मत करो । इसको न छोड़ने पर तुम लोह वणिक् की तरह पछताओगे ।
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[२३२] वे प्राणों के अतिपात में वर्तनशील, मृषावाद में असंयत अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह में सक्रिय हैं ।
[२३३] जिनशासन-पराङ्मुख, स्त्री वशवर्ती, अज्ञानी, अनार्य कुछ पार्श्वस्थ इस प्रकार कहते हैं
[२३४] जैसे गांठ या फोड़े को मुहूर्त भर के लिए परिपीड़ित किया जाता है, उसी प्रकार स्त्रियों के साथ समझने में दोष कहाँ है ?
[२३५] जैसे 'मन्धादक' (भेड़) जल को अव्यवस्थित किये बिना पी लेती है, इसी प्रकार वही विज्ञापन स्त्रियों के साथ हो तो वहाँ दोष कहाँ है ?
[२३६] जैसे पिंग पक्षिणी जल को अव्यवस्थित किये बिना पी लेती है वही विज्ञापन स्त्रियों के साथ हो, तो वहाँ दोष कहाँ है ?
[२३७] इस प्रकार कुछ मिथ्यादृष्टि, अनार्य, पार्श्वस्थ वैसे ही काम भोग में अध्युपपन्न रहते हैं जैसे स्त्री तरुण में आसक्त रहती है ।
[२३८] अनागत को ओझलकर जो मात्र प्रत्युत्पन्न / वर्तमान की गवेषणा करते हैं, वे आयुष्य और यौवन क्षीण होने के बाद में परितप्त होते हैं ।
[२३९] जिन्होंने समय रहते [धर्म] प्रराक्रम किया है, वे बाद में परितप्त नहीं होते । वे बन्धन मुक्त धीर पुरुष जीवन की आकांक्षा नहीं करते ।
[२४०] जैसे वैतरणी नदी दुस्तर समझी गई है, वैसे ही अमतिमान् के लिए इस लोक में नारी दुस्तर है ।
[२४१] जिन्होंने नारी-संयोग की अभ्यर्थना को पीठ दिखा दी है, वे इन सबको निराकृत करके सम्यक् समाधि में स्थित होते हैं ।
[२४२] जहाँ प्राणी स्वकर्मानुसार विषण्णासीन कृत्य करते हैं, उस ओघ को वे कामजयी वैसे ही तैर जाते हैं, जैसे व्यापारी समुद्र को तैर जाते है ।
[२४३] इसे जानकर भिक्षु सुव्रत और समित होकर विचरण करे । मृषावाद को और अदत्तादन का विसर्जन करे ।
[२४४] ऊर्ध्व, अधो अथवा तिर्यक् लोक में जो कोई भी त्रस - स्थावर प्राणी है, उनसे विरति करे, क्योंकि शांति ही निर्वाण कही गई है ।
[२४५] काश्यप महावीर द्वारा प्रवेदित इस धर्म को स्वीकार कर भिक्षु अग्लान भाव से रुग्ण की सेवा करे ।
[ २४६ ] सम्यक् द्रष्टा और परिनिवृत्त भिक्षु पवित्र धर्म को जानकर उपसर्गों का नियमन कर मोक्ष प्राप्ति तक परिव्रजन करे । ऐसा मैं कहता हूँ ।
अध्ययन - ३ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् अनुवाद पूर्ण ।