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________________ सूत्रकृत-१/३/२/१९६ १६३ आदि, उत्तम आचरण से जीवन बीताने वाले साधु को भोग के लिए निमंत्रित करते है । [१९७] यह चक्रवर्ती आदि कहते है, हे महर्षि ! आप यह रथ, अश्व, पालखी आदि यान में बैठिए, चित्तविनोद आदि के लिए उद्यान आदि में चलिए। [१९८] आयुष्मन् ! वस्त्र, गन्ध, अलंकार, स्त्रियाँ और शयन आदि भोग्य भोगों को भोगो | हम तुम्हारी पूजा करते हैं । [१९९] हे सुव्रत ! तुमने मुनिभाव में जो नियम धारण किया है, वह सब घर में निवास करने पर भी उसी तरह बना रहेगा । [२००] चिर-विचरणशील के लिए इस समय दोष कैसा ? वे नीवार (आहारादि) से सूकर की तरह मुनि को निमन्त्रित करते हैं । [२०१] भिक्षुचर्या में प्रवृत्त होते हुए भी मन्द पुरुष वैसे ही विपाद ग्रस्त होते हैं, जैसे चढ़ाई में दुर्बल [बैल] विषाद करता है । [२०२] संयम पालन में असमर्थ तथा तपस्या से तर्जित मंद पुरुष वैसे ही विषाद करते हैं, जैसे कीचड़ में वृद्ध बैल विषाद करता है । [२०३] इस प्रकार निमन्त्रण पाकर स्त्री-गृद्ध, काम-अध्युपपन्न बने भिक्षु गृहवास की ओर उद्यम कर बैठते हैं । -ऐसा मैं कहता हूँ । | अध्ययन-३ उद्देशक-३ | [२०४] जैसे युद्ध के समय भीरु पृष्ठ भाग में मढे, खाई और गुफा का प्रेक्षण करता है, क्योंकि कौन जाने कब पराजय हो जाये ! [२०५] मुहूर्तों के मुहूर्त में ऐसा भी मुहूर्त आता है, जब पराजित को पीछे भागना पड़ता है । इसलिए भीरु पीछे देखता है । २०६]इसी प्रकार कुछ श्रमण स्वयं को निर्बल समझकर अनागत भय को देख कर श्रुत का अध्ययन करते हैं । [२०७] कौन जाने पतन स्त्री से होता है या जल से । पूछे जाने पर कहँगा कि हम इस कार्य में प्रकल्पित नहीं है । [२०८] विचिकित्सा-समापन्न अकोविद श्रमण वलयादि का प्रतिलेख करते हुए पंथ देखते हैं । [२०९] जो शूर-पुरंगम विख्यात हैं, वे संग्रामकाल में पीछे नहीं देखते । भला, मरण से ज्यादा और क्या होगा । [२१०] इस प्रकार संयम समुत्थित भिक्षु अगार बन्धन का विसर्जन कर और आरम्भ को छोड़कर आत्म-हित के लिए पविजन करे । [२११] साधु जीवी भिक्षु की कुछ लोग निन्दा करते हैं । जो इस प्रकार निन्दा करते हैं, वे समाधि से दूर हैं। [२१२] समकल्प-सम्बद्ध/गृहस्थ लोग एक दूसरे में मूर्छित रहते हैं । ग्लान को आहार लाकर देते हैं, सम्हालते हैं । [२१३] इस प्रकार तुम सब सरागी और एक दूसरे के वशवर्ती, सत्पथ एव सद्भाव
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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