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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
[१४८] इसी तरह कामैषणा का ज्ञाता आज ही या कल संसर्ग / संस्तव को छोड़ दे । कामी होकर लभ्य - अलभ्य कामों की कामना न करे ।
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[१४९] बाद में असाधुता न हो, इसलिए स्वयं को अनुशासित कर ले । जो असाधु होता है, वह अत्यधिक शोक, प्रकम्पन एवं विलाप करता है ।
[१५० ] इस लोक में जीवन को देखे । सौ वर्षायु युवावस्था में ही टूट जाता है । अतः जीवन अल्पकालीन निवास समान समझो । गृद्ध मनुष्य काम-भोगों में मूर्च्छित है । [१५१] जो आरम्भ निश्रित, आत्मदंडी, एकान्त- लुटेरे हैं, वे पाप-लोक में जाते हुए आसुरी - दिशा में चिरकाल तक रहेंगे ।
[१५२] जीवन सुसंस्कृत नहीं कहा जा सकता, तथापि बाल - पुरुष प्रगल्भता करता है । वह कहता है मुझे वर्तमान से कार्य है, अनागत- परलोक को किसने देखा है ?
[१५३] हे अदृष्ट ! प्रत्यक्षदर्शी द्वारा प्ररूपित धर्म पर श्रद्धा करो । खेद है कि कृतमोहनीय कर्म से दर्शन निरुद्ध होता है ।
[१५४] मनुष्य मोहवश पुनः पुनः दुखी होता है । ( अतः ) साधक श्लाधा और पूजा से दूर रहे । सहिष्णु एवं संयमी समस्त प्राणियों पर आत्म-तुल्य बने ।
[१५५] संयत-मनुष्य गृहस्थ में रहता हुआ भी क्रमशः समस्त प्राणियों पर समभावयुक्त होकर वह सुव्रती देवलोक को प्राप्त करता है ।
[१५६ ] भगवान के अनुशासन / आज्ञा को सुनकर सत्य का उपक्रम करे । भिक्षु सर्वत्र मात्सर्य - रहित होकर विशुद्ध वृत्ति/चर्या करे ।
[१५७ ] धर्मार्थी वीर्य - उपधान / पराक्रम को सर्वविध जानकर धारण करे । सदा गुप्तियुक्त यत्न करे । इसी से परम आत्मा में स्थिति होती है ।
[१५८] वित्त, पशु, ज्ञातिजन को अज्ञानी शरण मानता है । वे मेरे हैं या मैं उनका हूँ; ऐसा मानने पर भी वे न त्राण या शरण नहीं होते ।
[१५९] दुःख कर्म - आगमन से या भवउपक्रम होने पर होता है । जीव अकेला ही जाता-आता है । यह मानकर विद्वान् किसी को शरण नहीं मानता ।
[ १६०] सभी प्राणी स्वयंकृत्कर्म से कल्पित हैं । अव्यक्त दुःख से भयाकुल शठपुरुष जाति-मरण के दुःखों से पीड़ित होता हुआ परिभ्रमण करता है ।
[१६१] इस क्षण को जाने । बोधि और आत्महित सुलभ नहीं है, ऐसा इन जिनेन्द्र ने और शेष जिनेन्द्रों ने भी कहा है ।
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[१६२ ] हे भिक्षु ! पूर्व में सुव्रतों के लिए आदेश था, आगे भी आदेश होगा और अभी भी है । ये गुण काश्यप के धर्म का अनुचरण करने वालों के लिए कथित हैं । [१६३ ] त्रिविध योग से प्राणियों का हनन न करे । आत्महितेच्छु- पुरुष अनिदान एवं संवृत रूप है । सिद्ध इस समय भी अनन्त हैं और अनागत में भी होंगे ।
[१६४] इस प्रकार अनुत्तरज्ञानी, अनुत्तरदर्शी, अनुत्तरज्ञान- दर्शनधारी, अर्हत् ज्ञातपुत्र भगवान ने वैशाली में कहा । ऐसा मैं कहता हूँ ।
अध्ययन - २ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् अनुवाद पूर्ण